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निराला युग से आगे---हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा---"अगीत" .... डा श्याम गुप्त ..

Written By shyam gupta on रविवार, 27 नवंबर 2011 | 9:05 pm

            कविता---पूर्व-वैदिक युग... वैदिक युग.... पश्च-वैदिक युग  व पौराणिक काल में वस्तुतः मुक्त-छन्द ही थी। वह ब्रह्म की भांति स्वच्छंद व बन्धन मुक्त ही थी। आन्चलिक गीतों, ऋचाओं, छन्दों, श्लोकों व विश्व भर की भाषाओं में अतुकान्त छन्दकाव्य आज भी विद्यमान है। कालान्तर में मानव-सुविधा स्वभाव वश, चित्रप्रियता वश, ज्ञानान्डंबर, सुखानुभूति-प्रीति हित; सन्स्थाओं, दरवारों, मन्दिरों, बन्द कमरों में काव्य-प्रयोजन हेतु, कविता छन्द-शास्त्र व अलन्करणों के बन्धन में बंधती गई तथा उसका वही रूप प्रचलित व सार्वभौम होता गया।  इस प्रकार वन-उपवन में स्वच्छंद विहार करने वाली कविता-कोकिला, वाटिकाओं, गमलों, क्यारियों में सजे पुष्पों पर मंडराने वाले भ्रमर व तितली होकर रह गयी। वह प्रतिभा प्रदर्शन व गुरु-गौरव के बोध से, नियन्त्रण व अनुशासन से बोझिल होती गयी और स्वाभाविक, ह्रदय स्पर्शी, स्वभूत, निरपेक्ष कविताविद्वतापूर्ण व सापेक्ष काव्य में परिवर्तित होती गयी, साथ ही देश, समाज़, राष्ट्र, जाति भी बन्धनों में बंधते गये। स्वतन्त्रता पूर्व की कविता यद्यपि सार्वभौम प्रभाववश छन्दमय ही है तथापि उसमें देश, समाज़, राष्ट्र को बन्धन मुक्ति की छटपटाहत व आत्मा को स्वच्छंद करने की, जन-जन प्रवेश की इच्छा है। निराला जी से पहले भी आल्हखंड के जगनिक, टैगोर की बांग्ला कविता, प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, हरिओध, पन्त आदि कवि सान्त्योनुप्रास-सममात्रिक कविता के साथ-साथ; विषम-मात्रिक-अतुकान्त काव्य की भी रचना कर रहे थे, परन्तु वो पूर्ण रूप से प्रचलित छन्द विधान से मुक्त, मुक्त-छन्द कविता नहीं थी।
यथा--- 
"दिवस का अवसान समीप था
गगन भी था कुछ लोहित हो चला
तरु-शिखा पर थी अब राजती
कमलिनी कुल-वल्लभ की विभा। "
                 -----अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिओध

"तो फ़ि क्या हुआ
सिद्ध राज जयसिंह
मर गया हाय
तुम पापी प्रेत उसके। "
                           ------मैथिली शरण गुप्त

"विरह, अहह, कराहते इस शब्द को
निठुर विधि ने आंसुओं से है लिखा। "
                            -----सुमित्रा नन्दन पन्त 
               
इस काल में भी गुरुडम, प्रतिभा प्रदर्शन मे संलग्न अधिकतर साहित्यकारों, कवियों, राजनैतिज्ञों का ध्यान राष्ट्र-भाषा के विकास पर नहीं था। निराला ने सर्वप्रथम बाबू भारतेन्दु व महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को यह श्रेय दिया। निराला जी वस्तुत काव्य को वैदिक साहित्य के अनुशीलन में, बन्धन मुक्त करना चाहते थे ताकि कविता के साथ-साथ ही व्यक्ति , समाज़, देश, राष्ट्र की मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त हो सके। "परिमल" में वे तीन खंडों में तीन प्रकार की रचनायें प्रस्तुत करते हैं। अन्तिम खंड की रचनायें पूर्णतः मुक्त-छंद कविताएं हैं। हिन्दी के उत्थान, सशक्त बांगला से टक्कर, प्रगति की उत्कट ललक व खडी बोली को सिर्फ़ आगरा के आस-पास की भाषा समझने वालों को गलत ठहराने और खड़ी बोली कीजो शुद्ध हिन्दी थी व राष्ट्र भाषा होने के सर्वथा योग्य, उपयुक्त व हकदार थीसर्वतोमुखी प्रगति व बिकास की ललक में निराला जी कविता को स्वच्छंन्द व मुक्त छंद करने को कटिबद्ध थे। इस प्रकार मुक्त-छंद, अतुकान्त काव्य व स्वच्छद कविता की स्थापना हुई। 
                   
परंतु निराला युग या स्वय निराला जी की अतुकान्त कविता, मुख्यतयाः छायावादी, यथार्थ वर्णन, प्राचीनता की पुनरावृत्ति, सामाजिक सरोकारों का वर्णन, सामयिक वर्णन, राष्ट्र्वाद तक सीमित थी। क्योंकि उनका मुख्य उद्धेश्य कविता को मुक्त छन्द मय करना व हिन्दी का उत्थान, प्रतिष्ठापन था। वे कवितायें लम्बी-लम्बी, वर्णानात्मक थीं, उनमें वस्तुतः आगे के युग की आधुनिक युगानुरूप आवश्यकता-सन्क्षिप्तता के साथ तीव्र भाव सम्प्रेषणता, सरलता, सुरुचिकरता के साथ-साथ, सामाजिक सरोकारों के समुचित समाधान की प्रस्तुति का अभाव था। यथा---कवितायें,   "अबे सुन बे गुलाब.....";"वह तोड़ती पत्थर....." ; "वह आता पछताता ...." उत्कृष्टता, यथार्थता, काव्य-सौन्दर्य के साथ समाधान का प्रदर्शन नहीं है। उस काल की मुख्य-धारा की नयी-नयी धाराओं-अकविता, यथार्थ-कविता, प्रगतिवादी कविता-में भी समाधान प्रदर्शन का यही अभाव है।
यथा-- 
 
"तीन टांगों पर खड़ा
नत ग्रीव
धैर्य-धन गदहा"......       अथवा-- 
 
"वह कुम्हार का लड़का
और एक लड़की
भैंस की पीठ पर कोहनी टिकाये
देखते ही देखते चिकोटी काटी 
और......."

इनमें आक्रोश, विचित्र मयता, चौंकाने वाले भाव तो है, अंग्रेज़ी व योरोपीय काव्य के अनुशीलन में; परन्तु विशुद्ध भारतीय चिन्तन व मंथन से आलोड़ित व समाधान युक्त भाव नहीं हैं। इन्हीं सामयिक व युगानुकूल आवश्यकताओं के अभाव की पूर्ति व हिन्दी भाषा , साहित्य, छंद-शास्त्र व समाज के और अग्रगामी, उत्तरोत्तर व समग्र विकास की प्राप्ति हेतु नवीन धारा  "अगीत" का आविर्भाव हुआ, जो निराला-युग के काव्य-मुक्ति आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए भी उनके मुक्त-छंद काव्य से पृथक अगले सोपान की धारा है। यह धारा, सन्क्षिप्तता, सरलता, तीव्र-भाव सम्प्रेषणता व सामाजिक सरोकारों के उचित समाधान से युक्त युगानुरूप कविता की कमी को पूरा करती है। उदाहरणार्थ----

"कवि- 
चिथड़े पहने
चखता संकेतों का रस
रचता-रस, छंद, अलंकार
ऐसे कवि के
क्या कहने। "   ( अगीत )
                       --------डा रंगनाथ मिश्र सत्य

"अज्ञान तमिस्रा को मिटाकर
आर्थिक रूप से समृद्ध होगी
प्रबुद्ध होगी
नारी !, तू तभी स्वतन्त्र होगी। " ( नव अगीत )
                               ------ श्रीमती सुषमा गुप्ता

"संकल्प ले चुके हम
पोलिओ-मुक्त जीवन का
धर्म और आतंक के - 
विष से मुक्ति का
संकल्प भी तो लें हम। " ( अगीत )
                    -----महाकवि श्री जगत नारायण पान्डेय

" सावन सूखा बीत गया तो
दोष बहारों को मत देना
तुमने सागर किया प्रदूषित" ( त्रिपदा अगीत )
                    -----डा. श्याम गुप्त 
                   
इस धारा "अगीत" का प्रवर्तन सन १९६६ ई. में काव्य की सभी धाराओं मे निष्णात, कर्मठ व उत्साही वरिष्ठ कवि डा रंग नाथ मिश्र सत्यने लखनऊ से किया। तब से यह विधा, अगणित कवियों, साहित्यकारों द्वारा विभिन्न रचनाओं, काव्य-संग्रहों, अगीत -खण्ड-काव्यों व महा काव्यों आदि से समृद्धि के शिखर पर चढ़ती जा रही है। 
इस प्रकार निश्चय ही अगीत, अगीत के प्रवर्तक डा. सत्य व अगणित रचनाकार , समीक्षक व रचनायें, निराला-युग से आगे, हिन्दी, हिन्दी सा्हित्य, व छन्द शास्त्र के विकास की अग्रगामी ध्वज व पताकायें हैं, जिसे अन्य धारायें, यहां तक कि मुख्य धारा गीति-छन्द विधा भी नहीं उठा पाई; अगीत ने यह कर दिखाया है, और इसके लिये कृत-संकल्प है। 
                                                                                



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