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वो उलझते से गए, न सुलझते से गए

Written By Brahmachari Prahladanand on बुधवार, 2 नवंबर 2011 | 7:30 am

वो उलझते से गए, न सुलझते से गए,
कैसे कहें क्या कहें, कब फंसते से गए,
फाँस जब गले में लगी तो पता चला,
अरे हम गले तक फँस गए पता चला,

फंसते हैं फनकारी में, अपनी कलाकारी में,
अपने फेंस के बीच फँस कर मारामारी में,
जब कला खुद की होती है, तो मज़ा उसमे,
फेंस की फरमाईश आती है गोली तक चल जाती है उसमे,

यही तो फंसना है, उसमे न अब अपना है,
फेंस की फरमाईश को पूरी कर मरना है,
किसको क्या-क्या फरमाईश करना है,
फरमाईश न की पूरी तो फिर उनसे डरना है,

काम न देंगे, दाम न देंगे,
अटका देंगे, सब छीन लेंगे,
खुद फनकार बन जायेंगे,
फनकार का मज़ाक उड़ायेंगे,

यही तो चलता है,
हर कोई मसखरा न बनता है,
मसलने पर जो खरा न उतरता है,
वही तो मसखरा बनता है,

मज़ाक उसका उड़ाता है,
जो-जो उसको सताता है,
भड़ास अपनी निकालता है,
उसको भी कुछ आता है,

उनकी कमियों पे अपनी,
कलाकारी की कहानी बनाता है,
उनकी कमजोरी को,
अपनी रोज़ी-रोटी बनाता है,

यही सिलसिला चला आता है,
उसको फिर बहुरुपिया कहा जाता है,
कोई उसको पहचान न पाए,
इसलिए शक्ल अपनी छिपाता है,

अब सब जान गए,
उसको असली पन को छान गए,
रूपया-दो रूपया दे गए,
रुपिया के बहुत रूप को मान गए,

                                     ------- बेतखल्लुस

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