इन्हीं सड़कों से रगबत थी, इन्हीं गलियों में डेरा था.
यही वो शह्र है जिसमें कभी अपना बसेरा था.
सफ़र में हम जहां ठहरे तो पिछला वक़्त याद आया
यहां तारीकिये-शब है वहां रौशन शबेरा था.
वहां जलती मशालें भी कहां तक काम आ पातीं
जहां हरसू खमोशी थी, जहां हरसू अंधेरा था.
खजाने लुट गए यारो! तो अब आंखें खुलीं अपनी
जिसे हम पासबां समझे हकीकत में लुटेरा था.
कोई तो रंग हो ऐसा कि जेहनो-दिल पे छा जाये
इसी मकसद से मैंने सात रंगों को बिखेरा था.
अंधेरों के सफ़र का जिक्र भी मुझसे नहीं करना
जहां आंखें खुलीं अपनी वहीं समझो शबेरा था.
वो एक आंधी थी जिसने हमको दोराहे पे ला पटका
खता तेरी न मेरी थी ये सब किस्मत का फेरा था.
मैं अपने वक़्त से आगे निकल आता मगर गौतम
मेरे चारो तरफ गुजरे हुए लम्हों का घेरा था.
1 टिप्पणियाँ:
वहां जलती मशालें भी कहां तक काम आ पातीं
जहां हरसू खमोशी थी, जहां हरसू अंधेरा था.
बहुत सुन्दर रचना
कभी हमारे ब्लॉग पर आकर हमारी कमियों के बारे में हमें भी बताये
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