कितनी गरिमामयी हो गयी हो तुम ,
नारीत्व का उच्चतम रूप पाकर |
मातृत्व की महान पदवी,
नारी जीवन की चिर आकांक्षा ,
विश्व की किसी भी-
"पद्मश्री" से बढ़ कर है |
यह उपनिषद् के महान मन्त्र को ,
जीवन के महान सत्य को,
सबसे उज्जवलतम रूप में -
प्रस्तुत करती है, जहां--
आत्म से आत्म मिलकर,
आत्ममय होजाता है ; और--
पुनः आत्म से --
नए आत्म का जन्म होता है ;
आत्म फिर भी आत्म रहता है |
यथा --पूर्ण से पूर्ण मिलकर ,
पूर्ण ही रहता है |
पूर्ण से पूर्ण घटने पर भी-
पूर्ण ही शेष रहता है |
ब्रह्म सदैव पूर्ण है |
आत्म सदैव पूर्ण है |
जीव से मिलने से पहले भी,
जीव से मिलने के बाद भी ;
जीव स्वयं पूर्ण है |
अतः --पूर्णाहुति के बाद भी ,
वही पूर्ण रहकर,
कितनी गरिमामयी होगई हो तुम |
कितनी महिमामयी होगई हो तुम |
कितनी सम्पूर्ण होगई हो तुम ||
1 टिप्पणियाँ:
ममतामयी - गीतामयी
सुन्दर कथ्य ||
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