हमें इस दौर के एक एक लम्हे से उलझना था.
मगर आखिर कभी तो एक न एक सांचे में ढलना था.
मगर आखिर कभी तो एक न एक सांचे में ढलना था.
वहीं दोज़ख के शोलों में जलाकर रख कर देता
ख़ुशी का एक भी लम्हा अगर मुझको न देना था.
न पूछो किस तरह गुजरी है अबतक जिंदगी अपनी
कभी उनसे शिकायत और कभी अपने पे रोना था.
मेरे चारो तरफ थे जाने पहचाने हुए चेहरे
मगर उस भीड़ से मुझको जरा बचकर निकलना था.
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