प्रिये!
उस रात तुम चली गयी थीं ,
उस रात तुम चली गयी थीं ,
और मैं भी चुप ही रह गया था ,
अजान सा, अनजान सा |
तब,
वैरागी सा मन लिए -
चल पडा था मैं,
ज्ञान गंगा की ओर;
और , वैश्वानर-
उपनिषद् का वह विराट-विश्वपुरुष ,
छ गया था मेरे मन पर-
धीरे धीरे |
मैं, तुम, वह, यह,
सभी उसी के रूप हैं |
ये हवा, प्रकृति, रूप, रस, गंध -
आकाश,पदार्थ ,अपदार्थ -
मन, बुद्धि, प्राण -
तुम और मैं ,
मैं और तुम ,
उसी विराट में निहित हैं |
उसी क्षण,
मैं और तुम का मोह जाता रहा,
और मैंने पाया कि, तुम-
सशरीर मेरे पास ही हो ,
विश्व रूप में ,मेरे ही रूप में ,
मेरे अंतर में ,
सदा सदा की तरह,
जन्म जन्मान्तरों की भाँति |
मैं तुम और वह विराट ,
एक साथ, एक रूपाकार -
थे, हैं और रहेंगे |
मैं ही तुम हो, तुम ही तुम हो,
तुम ही मैं हूँ, मैं ही मैं हूँ |
बस वैराग्य टूट गया,
और संसार जाग गया |
मैं खाता हूँ, पीता हूँ,सोता हूँ-
तुम खाती हो, पीती हो, सोती हो-
सारा जग खाता है, पीता है, सोता है |
जैसे द्रौपदी के एक 'तंदुल' से-
समस्त विश्व का पेट भर गया था |
यही संसार है,
यही महावैराग्य है,
सब कुछ एकाकार है |
भेद सिर्फ मन में है,
भेद सिर्फ बुद्धि में है,
ब्रह्म भेद रहित है ,
अनादि, सत्य या विराट -विश्वपुरुष ;
अनादि, सत्य या विराट -विश्वपुरुष ;
भेद सिर्फ ख्याली-पुलाव है |
और, मन में फिर-
वही पुलाव पकने लगता है, कि-
उस रात तुम चली गयीं थीं ,
बिना कुछ कहे ही, और-
मैं भी चुप ही रहगया था ,
अजान सा,
अनजान सा ||
3 टिप्पणियाँ:
आदरणीय डॉ श्याम गुप्त जी
इस जगत और ब्रह्म -भेद -अभेद को वर्णित करती सुन्दर रचना निम्न पंक्ति सुन्दर सन्देश देती -बधाई हो
यही संसार है,
यही महावैराग्य है,
सब कुछ एकाकार है |
भेद सिर्फ मन में है,
भेद सिर्फ बुद्धि में है,
ब्रह्म भेद रहित है ,
अनादि, सत्य या विराट -विश्वपुरुष ;
भेद सिर्फ ख्याली-पुलाव है |
शुक्ल भ्रमर ५
महान
गीता ज्ञान |
बढ़िया
शानदार ||
धन्यवाद ...रविकर जी व भ्रमर जी....
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Thanks for your valuable comment.