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अरे भई साधो......: काले धन का समाजशास्त्र

Written By devendra gautam on रविवार, 12 जून 2011 | 2:08 pm

बाबा रामदेव कौमा की स्थिति में पहुंचने के बाद काफी मुश्किल से अपना अनशन तोड़ने को तैयार हुए . सरकार को उनकी कोई चिंता नहीं रही. रामलीला मैदान से उनके साथ उनके समर्थकों को क्रूरता पूर्वक खदेड़ने के बाद कांग्रेस को उनके जीने मरने से कोई फर्क नहीं पड़ा. बाबा पूर्ववत अनशन पर हैं या नहीं, इससे कांग्रेसियों को कुछ भी मतलब नहीं.आर्ट ऑफ लिविंग के गुरु श्री श्री रविशंकर अनशन तुडवाने के प्रयास में लगे और अंततः सफल हुए. निश्चित रूप से बाबा रामदेव को इस बात का अहसास होगा कि एक अनशन के जरिये विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस नहीं लाया जा सकता. इसमें हठयोग से समाधान नहीं निकलनेवाला. यह एक लम्बी प्रक्रिया है. अनशन और अनशनकारियों के साथ सरकार के बर्बर व्यवहार से सरकार का चेहरा ज़रूर बेनकाब हो गया. देशवासियों तक यह सन्देश चला गया कि मौजूदा सरकार की काले धन को वापस लाने में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह काले धन के खाताधारियों के बचाव के लिए किसी सीमा तक जाने को तैयार है. जाहिर है कि विदेशी बैंकों में जमा की गयी राशि इनके करीबी लोगों की है. उनके बचाव के लिए सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करने में उसे कोई परहेज नहीं है. यह भी स्पष्ट हो गया कि अब वह लोकतान्त्रिक और अहिंसक आंदोलनों से इसी तरह निपटेगी क्योंकि लोकलाज को त्यागकर इनसे निपटा जा सकता है. उग्रवादियों और आतंकवादियों से उसे परेशानी नहीं है क्योंकि वे भ्रष्टाचार या काले धन का विरोध नहीं करते उन्हें लेवी देकर कुछ भी किया जा सकता है. बल्कि उग्रवादी गतिविधियां तो विकास योजनाओं की राशि से ही चल रही हैं. अधिकारी माओवादियों को लेवी देकर उसकी जितनी भी बंदरबांट करें कोई अंतर नहीं पड़ता. भ्रष्टाचार में भागीदारी कर हिंसक-अहिंसक कोई भी आन्दोलन चले सरकार को परेशानी नहीं है. लेकिन काले धन को वापस लाने की जिद ...भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की मांग....यह तो वर्तमान राजनैतिक संस्कृति के विरुद्ध है.

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3 टिप्पणियाँ:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

भ्रष्ट लोग कब चाहेंगे कि कोई उनका काला धन देश में लाने की बात कहै!

shyam gupta ने कहा…

बात निकली है तो अब दूर तलक जायेगी....
पत्थर पे रगड़ने से ही रंग हिना लायेगी ||

Bharat Bhushan ने कहा…

'काले धन को वापस लाने की जिद ...भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की मांग....यह तो वर्तमान राजनैतिक संस्कृति के विरुद्ध है.'

सही टिप्पणी है....सबक सीखे गए हैं...और भी सीखे जाएँगे. अब अन्ना की बारी है कि उसे कैसे पृष्ठभूमि में फेंक दिया जाता है.

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