हमारे देश में जितने भी गैरकानूनी काम हैं, उन्हें कानूनी जटिलताएं संरक्षण देने का काम करती हैं। काले धन की वापसी की प्रक्रिया भी केंद्र सरकार के स्तर पर ऐसे ही हश्र का शिकार है। सरकार इस धन को कर चोरी का मामला मानते हुए संधियों की ओट में काले धन को गुप्त बने रहने देना चाहती है, जबकि विदेशी बैंकों में जमा काला धन केवल कर चोरी का धन नहीं है, भ्रष्टाचार से अर्जित काली कमाई भी उसमें शामिल है। जिसमें बड़ा हिस्सा राजनेताओं और नौकरशाहों का है। बोफोर्स दलाली, 2जी स्पेक्ट्रम और राष्ट्रमंडल खेलों के माध्यम से विदेशी बैंकों में जमा हुए काले धन का भला कर चोरी से क्या वास्ता? दरअसल, प्रधानमंत्री और उनके रहनुमा कर चोरी के बहाने कालेधन की वापसी की कोशिशों को इसलिए अंजाम तक नहीं पहंुचा रहे, क्योंकि नकाब हटने पर सबसे ज्यादा फजीहत कांग्रेसी कुनबे और उनके बरदहस्त नौकरशाहों की ही होने वाली है। वरना, स्विट्जरलैंड सरकार तो न केवल सहयोग के लिए तैयार है, अलबत्ता वहां की एक संसदीय समिति ने तो इस मामले में दोनों देशों के बीच हुए समझौते को मंजूरी भी दे दी है। यही नहीं, काला धन जमा करने वाले दक्षिण पूर्व एशिया से लेकर अफ्रीका तक के कई देशों ने भी भारत को सहयोग करने का भरोसा जताया है। हालांकि हाल ही में मजबूरी जताते हुए वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि केंद्र सरकार धन वापसी के लिए जमाखोरों के हित में क्षमादान योजना लागू करने पर भी विचार कर रही है। उन्होंने 500 से 1400 अरब डॉलर धन विदेशों में जमा होने का संकेत दिया, लेकिन मुकदमा चलने पर ही नाम उजागर करने की लाचारगी जताई। पर देर-सबेर विकिलीक्स करीब दो हजार भारतीय खाताधारकों के नामों का खुलासा कर देगी, इसमें कोई संशय नहीं है। पूरी दुनिया में करचोरी और भ्रष्ट आचरण से कमाया धन सुरक्षित रखने की पहली पसंद स्विस बैंक रहे हैं, क्योंकि यहां खाताधारकों के नाम गोपनीय रखने संबंधी कानून का पालन कड़ाई से किया जाता है। नाम की जानकारी बैंक के कुछ आला अधिकारियों को ही रहती है। ऐसे ही स्विस बैंक से सेवानिवृत्त एक अधिकारी रूडोल्फ ऐल्मर ने दो हजार भारतीय खाताधारकों की सूची विकिलीक्स को सौंप दी है। इसी तरह फ्रांस सरकार ने भी हर्व फेल्सियानी से मिली एचएसबीसी बैंक की सीडी ग्लोबल फाइनेंशियल इंस्टीट्यूट को हासिल कराई है, जिसमें कई भारतीयों के नाम दर्ज हैं। स्विस बैंक एसोसिएशन की तीन साल पहले जारी एक रिपोर्ट के हवाले से स्विस बैंकों में कुल जमा भारतीय धन 66 हजार अरब रुपये है। खाता खोलने के लिए शुरुआती राशि ही 50 हजार करोड़ डॉलर होना जरूरी शर्त है। अन्यथा, खाता नहीं खुलेगा। भारत के बाद काला धन जमा करने वाले देशों में रूस 470, ब्रिटेन 390 और यूके्रन ने भी 390 बिलियन डॉलर जमा करके अपने ही देश की जनता से घात करने वालों की सूची में शामिल हैं। केंद्र सरकार इस मामले को कर चोरी और दोहरे कराधान संधियों का हवाला देकर टालने में लगी है। दरअसल, इस मामले ने तूल पकड़ा तो यूपीए सरकार को वजूद के संकट से गुजरना होगा। इसलिए सरकार बहाना बना रही है कि विभिन्न देशों ने ऐसी जानकारी केवल कर संबंधी कार्यो के निष्पादन के लिए दी है। खाताधारियों के नाम सार्वजनिक करने के लिए चल रहे करारों को बदलना होगा। दोहरे कराधान बचाव संधि में बदलाव के लिए इन देशों के साथ नए करार करने होंगे। भारत सरकार का रुख काले धन की वापसी के लिए साफ नहीं है। यह इस बात से जाहिर होता है कि कुछ समय पहले भारत और स्विट्जरलैंड के बीच दोहरे कराधान संशोधित करने के लिए संशोधित प्रोटोकॉल संपादित हुआ था, लेकिन इस पर दस्तखत करते वक्त भारत सरकार ने कोई ऐसी शर्त पेश नहीं की, जिससे काले धन की वापसी का रास्ता प्रशस्त होता। जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संपन्न होने वाले ऐसे किसी भी दोहरे समझौते में राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होने चाहिए। दुनिया में 77.6 प्रतिशत काली कमाई ट्रांसफर प्राइसिंग (संबद्ध पक्षों के बीच सौदों में मूल्य अंतरण) के जरिए पैदा हो रही है। इसमें एक कंपनी विदेशों में अपनी सहायक कंपनी के साथ सौदों में 100 रुपये की एक वस्तु की कीमत 1000 रुपये या 10 रुपये दिखाकर करों की चोरी और धन की हेराफेरी करती है। भारत में संबद्ध फर्मो के बीच इस तरह के मूल्य अंतरण में हेराफेरी रोकने का प्रयास 2000 के आसपास वजूद में आने लगा था, पर सरकार इसे और कड़ा कर अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाने की सोच रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र ने एक संकल्प पारित किया है, जिसका मकसद है कि गैरकानूनी तरीके से विदेशों में जमा काला धन वापस लाया जा सके। इस संकल्प पर भारत समेत 140 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। यही नहीं, 126 देशों ने तो इसे लागू कर काला धन वसूलना भी शुरू कर दिया है। यह संकल्प 2003 में पारित हुआ था, लेकिन भारत सरकार इसे टालती रही। आखिरकार 2005 में उसे हस्ताक्षर करने पड़े। लेकिन इसके सत्यापन में अभी भी टालमटोल हो रहा है। स्विट्जरलैंड के कानून के अनुसार कोई भी देश संकल्प को सत्यापित किए बिना विदेशों में जमा धन की वापसी की कार्रवाई नहीं कर पाएगा। हालांकि इसके बावजूद स्विट्जरलैंड सरकार की संसदीय समिति ने इस मामले में भारत सरकार के प्रति उदारता बरतते हुए दोनों देशों के बीच हुए समझौते को मंजूरी दे दी है। इससे जाहिर होता है कि स्विट्जरलैंड सरकार भारत का सहयोग करने को तैयार है, लेकिन भारत सरकार ही कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते पीछे हट रही है। हालांकि दुनिया के तमाम देशों ने काले धन की वापसी का सिलसिला शुरू भी कर दिया है। इसकी पृष्ठभूमि में दुनिया में आई वह आर्थिक मंदी थी, जिसने दुनिया की आर्थिक महाशक्ति माने जाने वाले देश अमेरिका की भी चूलें हिलाकर रख दी थीं। मंदी के काले पक्ष में छिपे इस उज्जवल पक्ष ने ही पश्चिमी देशों को समझाइश दी कि काला धन ही उस आधुनिक पूंजीवाद की देन है, जो विश्वव्यापी आर्थिक संकट का कारण बना। 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका की आंखें खुलीं कि दुनिया के नेता, नौकरशाह, कारोबारी और दलालों का गठजोड़ ही नहीं आतंकवाद का पर्याय बना ओसामा बिन लादेन भी अपना धन खातों को गोपनीय रखने वाले बैंकों में जमा कर दुनिया के लिए बड़ा खतरा बन सकता है। स्विस बैंकों में गोपनीय तरीके से काला धन जमा करने का सिलसिला पिछली दो सदियों से बरकरार है, लेकिन कभी किसी देश ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। आर्थिक मंदी का सामना करने पर पश्चिमी देश चैतन्य हुए और कड़ाई से पेश आए। 2008 में जर्मन सरकार ने लिंचेस्टाइन बैंक के उस कर्मचारी हर्व फेल्सियानी को धर दबोचा, जिसके पास कर चोरी करने वालों की लंबी सूची की सीडी थी। इस सीडी में जर्मन के अलावा कई देशों के लोगों के खातों का ब्यौरा भी था। लिहाजा, जर्मनी ने उन सभी देशों को सीडी देने का प्रस्ताव रखा, जिनके नागरिकों के सीडी में नाम थे। अमेरिका, ब्रिटेन और इटली ने तत्परता से सीडी की प्रतिलिपि हासिल की और धन वसूलने की कार्रवाई शुरू कर दी। संयोग से फ्रांस सरकार के हाथ भी एक ऐसी ही सीडी लग गई। फ्रेंच अधिकारियों को यह जानकारी उस समय मिली, जब उन्होंने स्विस सरकार की हिदायत पर हर्व फेल्सियानी के घर छापा मारा। दरअसल, फेल्सियानी एचएसबीसी बैंक का कर्मचारी था और उसने काले धन के खाताधारियों की सीडी बैंक से चुराई थी। फ्रांस ने उदारता बरतते हुए अमेरिका, इंग्लैंड, स्पेन और इटली के साथ खाताधारकों की जानकारी बांटकर सहयोग किया। दूसरी तरफ ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कारपोरेशन एंड डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट ने स्विट्जरलैंड समेत उन 40 देशों के बीच कर सूचना आदान-प्रदान संबंधी 500 से अधिक संधियां हुई। शुरुआती दौर में स्विट्जरलैंड और लिंचेस्टाइन जैसे देशों ने आनाकानी की, लेकिन आखिरकार अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए। अन्य देशों ने भी ऐसी संधियों का अनुसरण किया, लेकिन भारत ने अभी तक एक भी देश से संधि नहीं की है। हालांकि प्रणब मुखर्जी अब संकेत दे रहे हैं कि 65 देशों से सरकार बात करने का मन बना रही है।
साभार- प्रमोद भार्गव (वरिष्ठ पत्रकार )
साभार- प्रमोद भार्गव (वरिष्ठ पत्रकार )
2 टिप्पणियाँ:
काफ़ी तकनीकी बात है...पर भ्रष्टाचार पर दो राय कब हो सकती हैं....
saleem bhai aap achha likhte ho
खुद इमानदार होना ही काफी नहीं....
पूरे देश मैं नेता से लेकर सरकारी अधिकारी तक ज़्यादातर कोई भी इमानदार नहीं है 'उदाहरण अगर एक विभाग का एक छोटा सा पीओन भी अगर इमानदार हो तो पूरा ऑफिस इमानदार होता, क्योकि खुद इमानदार होने से ही काम नहीं चलता दूसरो को भी इमानदारी से काम कराना ही सही इमानदारी है
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