क्यूँ देखता हूँ रोज़
सूरज की तरह
में तुम्हें
क्यूँ देखता हूँ रोज़
चाँद की तरह
में तुम्हें
क्यूँ देखता हूँ रोज़
चमकते तारों की तरह
में तुम्हे
जब तुमसे
चाँद ,तारे और सूरज की तरह
मुलाक़ात का
कोई वायदा भी नहीं हे
क्यूँ देखता हूँ
एक टक
यूँ ही
गुमसुम सा में तुम्हें ।
अख्तर खान अकेला कोटा राजस्थान
3 टिप्पणियाँ:
वायदा नहीं---देखने के अलावा कुछ कर भी तो नहीं सकते...
हम्म बीवी पुराण.
कुछ तो सुकून मिलता ही होगा वर्ना इस कदर निहारने का कारण शयद कुछ भी नहीं |
सुकून के एहसास को दर्शाती रचना |
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