चाँद से चांदनी गिरी,
पनाह कहीं न मिली,
समाँ गयी धरती में,
फिर खोद-खोद मिली,
भारत जिसे स्वतन्त्रता नहीं,
परतंत्रता ही अच्छी लगती है,
तब किस-किस के दास बने,
अब लोकपाल से आस लगे,
फरियाद यह करना जानती है,
खुद से कुछ न करना चाहती है,
किसी बादशाह की गुलाम थी,
फरियाद उसी से होती थी,
अब आगे के वक्त में, शिकायत लोकपाल से करेगी,
लोकपाल ही बादशाह बनेंगे, ये फिर गुलामी करेगी,
न रहना आता इसे आज़ादी से,
बस रहना आता फरियादी से,
रहकर गुलाम कई सदियों से,
सांस लेना न आता खुली हवा से,
अब क्या आगे की बात कहूँ,
दिखता है नज़ारा, बात साफ़ कहूँ,
सोने की अब आदत सी हो गयी है,
जबसे रियाया भी शाह हो गयी है,
काम कौन करे, जब सब राजा हो गए,
गुलाम कौन बने, जब सब बादशाह हो गए,
गर पेट की मजबूरी न होती,
सारी रियाया फिर मज़े से सोती,
हैं सब राजा यहाँ लोकतंत्र में,
करते राजनीति लोकतंत्र में,
फिर से गुलाम होना चाहते हैं,
लोकपाल किसी को बनाना चाहते हैं,
------- बेतखल्लुस
.
पनाह कहीं न मिली,
समाँ गयी धरती में,
फिर खोद-खोद मिली,
भारत जिसे स्वतन्त्रता नहीं,
परतंत्रता ही अच्छी लगती है,
तब किस-किस के दास बने,
अब लोकपाल से आस लगे,
फरियाद यह करना जानती है,
खुद से कुछ न करना चाहती है,
किसी बादशाह की गुलाम थी,
फरियाद उसी से होती थी,
अब आगे के वक्त में, शिकायत लोकपाल से करेगी,
लोकपाल ही बादशाह बनेंगे, ये फिर गुलामी करेगी,
न रहना आता इसे आज़ादी से,
बस रहना आता फरियादी से,
रहकर गुलाम कई सदियों से,
सांस लेना न आता खुली हवा से,
अब क्या आगे की बात कहूँ,
दिखता है नज़ारा, बात साफ़ कहूँ,
सोने की अब आदत सी हो गयी है,
जबसे रियाया भी शाह हो गयी है,
काम कौन करे, जब सब राजा हो गए,
गुलाम कौन बने, जब सब बादशाह हो गए,
गर पेट की मजबूरी न होती,
सारी रियाया फिर मज़े से सोती,
हैं सब राजा यहाँ लोकतंत्र में,
करते राजनीति लोकतंत्र में,
फिर से गुलाम होना चाहते हैं,
लोकपाल किसी को बनाना चाहते हैं,
------- बेतखल्लुस
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1 टिप्पणियाँ:
यथार्थ को बताती हुई सार्थक रचना /बहुत बधाई आपको /
please visit my blog
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Thanks for your valuable comment.