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ये धरा नहीं है, जन्नत है

Written By नीरज द्विवेदी on बुधवार, 28 सितंबर 2011 | 4:53 pm



जन्मों से जिसको माँगा है,

वो पूरी होती मन्नत है।
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

शस्य श्यामला धरती प्यारी,
ईश्वर की एक अमानत है,
सबको ये खैर मिलेगी कैसे?
बस ये तो  मेरी किस्मत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

क्रांतिवीर विस्मिल की माता,
जननी है नेता सुभाष की,
पद प्रक्षालन करता सागर,
जिसके सम्मुख शरणागत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

बाँट दिया हो भले तुच्छ,
नेताओं ने मंदिर मस्जिद में,
भूकम्पों से ना हिलने वाला,
हिमगिरी से रक्षित भारत है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

संस्कार शुशोभित पुण्यभूमि,
हैं प्रेमराग में गाते पंछी,
दुनिया को राह दिखाने की,
इसकी ये अविरल गति है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

आदिकाल से मानव को,
जीवन का सार सिखाया है,
स्रष्टि का सारा तेज ज्ञान,
जिसके आगे नतमस्तक है॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

जन्म यहाँ फिर पाना ही,
मेरा बस एक मनोरथ है,
कर लूँ चाहे जितने प्रणाम,
पर झुका रहेगा मस्तक ये॥
ये धरा नहीं हैजन्नत है।

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3 टिप्पणियाँ:

चंदन ने कहा…

बहुत सही कहा आपने ये धारा नही जन्नत है|
हम सभी भाग्य शाली हैं की माँ भारती की गोद में पलने और फलने फूलने का शौभाग्य प्राप्त हुआ है... माँ भारती की शाण में कही आपकी इन पंक्तियों के लिए आभार !
जय माँ भारती!
वन्देमातरम!

सदा ने कहा…

बहुत ही अच्‍छी रचना ।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

bahut khub

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