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नाजायज भी जायज है

Written By नीरज द्विवेदी on मंगलवार, 20 सितंबर 2011 | 12:20 pm




तू अगर खड़ी हो सम्मुख तो,
दिल की दुर्घटना जायज है,
आँखों की बात करूँ कैसे?
इनका ना हटना जायज है॥

स्वप्नों में उड़ना जायज है,
चाँद पकड़ना जायज है,
गर तुम हो साथ मेरे तो,
दुनिया से लड़ना जायज है॥

किसी और से आँख लड़े कैसे?
ये सब तो अब नाजायज है
तू हो मेरे आलिंगन में तो,
धरती का फटना जायज है॥

चाहें लाख बरसतें हो बादल,
उनका चिल्लाना जायज है,
गर तेरा सर हो मेरे सीने पर,
बिजली का गिरना जायज है॥

अचूक हलाहल हो सम्मुख,
मेरा पी जाना जायज है,
इक आह हो तेरे होंठों पर,
तो मेरा डर जाना जायज है॥

स्रष्टि का क्रंदन जायज है,
हिमाद्रि बिखंडन जायज है,
मेरे होंठो पर हों होंठ तेरे,
तो धरा का कम्पन जायज है॥

तू हो तीर खड़ी नदिया के,
उसका रुक जाना जायज है,
बस तेरे लिए हे प्राणप्रिये,
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2 टिप्पणियाँ:

vandana gupta ने कहा…

अचूक हलाहल हो सम्मुख,
मेरा पी जाना जायज है,
इक आह हो तेरे होंठों पर,
तो मेरा डर जाना जायज है॥
गज़ब का चित्रण किया है सीधा दिल मे उतर गयी आपकी रचना और ये दिलकश अन्दाज़्।

नीरज द्विवेदी ने कहा…

Bahut aabhar vandana ji.

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