कितना मुश्किल है
ये हर वक्त का बहना
रुकना चाहूँ भी
तो कैसे रुकूँ ......
तुम दोनों भी तो
चल रहे हो
साथ मेरे
लेकिन -
अलग अलग छोरों पर .....
जो कभी मिलोगे
तुम दोनों
तभी तो रुक पाऊँगी
अन्यथा यूँही
अनवरत बहना होगा ......
कभी देखती हूँ
उस क्षितिज पर
जहाँ तुम दोनों
दिखते हो मिलते हुए
लेकिन तब
मै नहीं आती
नजर -
ख़त्म हो जाता है
मेरा अस्तित्व ....
पतली सी खिची रेखा
जो तुम दोनों में
ही समा जाती है ........
शायद -
अभी वक्त नहीं है
मेरे लीन होने का
वजूद के समर्पण का .....
तभी तुम दोनों
साथ साथ होकर भी
बहुत दूर हो .....................
प्रियंका राठौर
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