जिन्होंने ठीक से स्कूल-कॉलेज का मुँह देखा है, उन्होंने तो आँकड़ों को सही-सही पढ़ लिया और उनके आयतन को आत्मसात भी कर लिया, मगर एक सौ इक्कीस करोड़ में से, देश की अधिकांश पढ़ने-लिखने से पूरी तौर पर बरी आम जनता इन आँकड़ों की माया से एकदम अप्रभावित है। उसका सौभाग्य है कि ये लम्बे-लम्बे, चौड़े-चौड़े आँकड़े पढ़कर उन्हें अपनी छाती नहीं कूटना पड़ रही है। कारण उन्हें अखबार पढ़ना ही नहीं आता। कहीं से अगर इन आँकड़ों की खबर लग भी गई तो उनके लिये समझना नामुमकिन है कि इतना धन वास्तव में कितना धन होता है। वे अपनी बीस रुपये औसत रोज़न्दारी से खुश है, उनके दिमाग को कोई फालतू टेन्शन नहीं है।
देश के कर्णधारों ने अधिकांश जनता को इसी दिन के लिये तो अनपढ़-गँवार बनाए रखा है, ताकि जब नेताओं की पोलों के समाचार अखबारों में छपें, टीवी पर सनसनी फैलाएँ तो बेचारी को उन्हें पढ़ने-समझने की ज़हमत न उठाना पडे़ और न ही गुस्से और आक्रोश की अगांधीवादी भावना से दो-चार होना पड़े। लोग यदि अपनी रोटी-रोज़ी की जुगाड़ की चिन्ता छोड़कर इस आँकड़ेबाज़ी की चिन्ता करने लगें तो देश का विकास कितना प्रभावित होगा!
इसमें विरोधी ताकतों की मुश्किलें बढ़ाने की सियासी चाल भी है। जाओ बेटा घर-घर और समझाओ गँवार जनता को कि हमने कितना माल दबाया है। जनता तुम्हारे दुष्प्रचार को समझे इस लायक उसे छोड़ा ही नहीं गया है, कर लो बेटा क्या करते हो।
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