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ये जीवन क्यूँ भारी लगता है?

Written By नीरज द्विवेदी on बुधवार, 28 सितंबर 2011 | 4:58 pm



तू आज नहीं है सम्मुख तो,
जीवन क्यूँ भारी लगता है?
मौसम भी साथ नहीं देता,
तेरा आभारी लगता है॥

इन सबकी बातें छोड़ो,
आँखे क्यूँ साथ नहीं देतीं?
इस सूखे साखे मौसम में,
क्यूँ भरा पनारा लगता है?

कागज की कश्ती डूब चुकी,
जीवन नौका की बारी है,
पतवार है जिसके हाथों में,
बस उसका पता नहीं लगता है॥

कैसे रो रोकर गाऊँ मैं?
कैसे खुद को समझाऊँ मैं?
ये चाँद भी बात नहीं करता,
तेरा ही आशिक लगता है॥

आँखे खोलूं तो पानी है,
दिखती ना कोई निशानी है,
कानों में पड़ने वाला श्वर,
बस तेरी कहानी कहता है॥

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1 टिप्पणियाँ:

ORISON ने कहा…

यूँ तो चमचा कहकर,
हर कोई चमचे का मजाक उडा देता है,
पर वो क्या जानता नहीं,
चमचा किस-किस काम आता है,

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