मेरा बोलना मुझे कितना महंगा पड़ा
मैं लफ्ज़-दर-लफ्ज़ खोखला होता गया .
मैंने की थी जिनसे उम्मीद मोहब्बत की
पैसा उनका ईमान था , पैसा उनका खुदा .
दोस्त बाँट लेते हैं दर्द दोस्तों के
देर हो चुकी थी जब तलक ये वहम उड़ा .
कुछ बातें खुद ही देखनी होती हैं मगर
मैं हवाओं से उनका रुख पूछता रहा .
उस किनारे पर तब गूंजें हैं कहकहे
इस किनारे पर जब कोई तूफां उठा .
तन्हा होना ही था किसी-न-किसी मोड़ पर
यूं तो कुछ दूर तक वो भी मेरे साथ चला .
तुम मेरी वफाओं का हश्र न पूछो ' विर्क '
मेरा नाम हो गया है आजकल बेवफा .
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* दिलबाग विर्क *
----- sahityasurbhi.blogspot.com
5 टिप्पणियाँ:
bahut sahi baat kahi hai aapne apne har sher me .badhai .
gr8
बात तो सही है, विर्क जी पर इसे --गज़ल नहीं, कविता, नज़्म या रुबाई कहिये...
महोदय
सदर प्रणाम
निस्संदेह आपकी बात सही है . मैं गजल के बहर को नहीं निभा पाता . सुविधा के लिए ही इसे गजल कहा था . वास्तव में यह गजलनुमा रचना ही है . आपके इतराज़ पर मैंने शीर्षक अगज़ल कर दिया है . हाँ ग़ज़ल शब्द को नहीं छोड़ रहा क्योंकि काफिया , रदीफ़ गजल-सा ही है . सभी मिसरों में मात्राएँ भी एक-सी हैं .बस वजन एक-सा नहीं ,हालाँकि गजल के हिसाब से यह बड़ी कमी हैं लेकिन अगज़ल के लिए शायद काफी होगा.
बहुत अच्छे विर्क, मैने ही शीर्षक अगज़ल नहीं देखा था.....यह एक नई विधा हो सकती है..अगीत की तरह.....बधाई...
---सुन्दर अगज़ल....
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