चिकित्सा क्षेत्र के सभी लोग एक विशेष महत्व रखते हैं और डॉक्टर तो भगवान कहे जाते हैं और होते भी हैं। मैंने देखे है ऐसे डॉक्टर - मरीजो की सेवा किसी भी हद तक करने में संलग्न हैं। सबसे पहले ऐसे समर्पित डॉक्टरों के लिएनमन और नीचे दी जा रही शर्मनाक घटना के लिए लोगों की जितनी भी भर्त्सना की जाय कम है।
ये घटना उत्तर प्रदेश के बहुत पुराने अस्पताल "स्वरूपरानी नेहरु चिकित्सालय" इलाहाबाद की है। जिसने क़ानून और मानवता को ताक पर रख कर ये घृणित काम किया और फिर उसके खिलाफ जंग भी छेड़ दी है।
इस अस्पताल के कर्मचारियों ने कुछ मरीजों को अस्पताल से उठा कर दूर जंगल में झाड़ियों में फ़ेंक दियाक्योंकि उनकी हालात में सुधार नहीं हो रहा था। इसमें जिम्मेदार माने जा रहे कर्मचारियों का कहना है कि ऐसा उन्होंनेयहाँ के डॉक्टरों के कहने पर किया था। वही डॉक्टर जिन्हें भगवान मानकर मरीज अस्पताल आता है और उसके घर वालेआशाभरी निगाहों से उसको देखते रहते हैं। इस कथन में कितनी सच्चाई है - इस बात को सिद्ध नहीं किया जा सकता हैलेकिन फिर भी चाहे जो हो उसके अन्दर एक आत्मा होती है और वह क्या ऐसे घृणित कार्य करने के लिए विरोध नहींकरती है । शायद नहीं , नहीं तो उनकी दया पर निर्भर मरीज को ऐसे जंगल में कौन फ़ेंक सकता है? अगर डॉक्टर ने ऐसाकहा है तो वह और भी शर्मनाक है लेकिन कोई भी कर्मचारी बगैर किसी ऊपर हाथ रखने वाले के ऐसा कदम नहीं उठासकता है। इसके पीछे उच्च कर्मचारी वर्ग का समर्थन या शह जरूर ही हैं।
शर्मनाक इस लिए तो है ही --साथ ही जब इसके लिए दोषी पाए गए वार्ड बॉय के खिलाफ कार्यवाहीकी गयी तो सभी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए और बाद में उनके साथ जूनियर डॉक्टर भी मिल गए। इसके विषय में क्या कहा जा सकता है? ये कि इस कार्य को अंजाम देने वाले लोगों के साथ जूनियर डॉक्टर की भी साजिशरही होगी। एक तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरी। अब होगी कार्यवाही - जांच के लिए समिति का गठन और इस समितिमें कौन लोग होंगे? वही अस्पताल वाले न फिर वे क्यों इसके खिलाफ रिपोर्ट देंगे और दी भी तो हम क्या कर लेंगे? मानवता के मुँह पर कालिख पोतते हुए ये भगवान इनके लिए जो भी दंड निर्धारित किया जाय काम है।
एक तरफ हमारा सुप्रीम कोर्ट अरुणा शानबाग जैसे मरीज को दया मृत्यु के लिए सहमत नहीं है औरउस अस्पताल के डॉक्टर और कर्मचारी भी उसके लिए प्रतिबद्ध है और दूसरी ओर जीवित लोगों को मरने के लिए जंगलमें फ़ेंक दिया गया क्योंकि वे अब कभी ठीक नहीं हो सकते हैं या फिर उनकी हालात में सुधार नहीं हो सकता है। अगरऐसा ही हो तो हमारे देश की आबादी बहुत जल्दी काम हो सकती है क्योंकि टाटा मेमोरिअल जैसे अस्पतालों में तोलाइलाज मरीज ही आते हैं और फिर अस्पताल सबको बाहर फिंकवा दे और डॉक्टरों की कोई जिम्मेदारी नहीं है। क्योंकिवहाँ आने वाले कम से कम ८० प्रतिशत मरीज को पूरी तरह से कभी ठीक होना ही नहीं होता है। कुछ वर्षों कि जिन्दगी केलिए क्यों जहमत उठाई जाए। लाखों रुपये खर्च किये जाय। ये महज एक खबर नहीं है बल्कि कुछ सोचने के लिएमजबूर करने वाली बात है और इसको सिर्फ विभागीय स्तर पर निपटाने वाली बात भी नहीं बल्कि इसको सरकार केसंज्ञान में लिया जाना चाहिए और अगर सरकार इसके लिए मजबूर है क्योंकि इसमें कुछ सम्मिलित लोग वर्ग विशेष केभी हो सकते हैं जिनपर मुख्यमंत्री जी की विशेष कृपा रहती है तो फिर उनके खिलाफ कार्यवाही हो ही नहीं सकती है। तबइसको हमें सर्वोच्च न्यायालय कि दहलीज पर ले कर जाना होगा।
ये घटना उत्तर प्रदेश के बहुत पुराने अस्पताल "स्वरूपरानी नेहरु चिकित्सालय" इलाहाबाद की है। जिसने क़ानून और मानवता को ताक पर रख कर ये घृणित काम किया और फिर उसके खिलाफ जंग भी छेड़ दी है।
इस अस्पताल के कर्मचारियों ने कुछ मरीजों को अस्पताल से उठा कर दूर जंगल में झाड़ियों में फ़ेंक दियाक्योंकि उनकी हालात में सुधार नहीं हो रहा था। इसमें जिम्मेदार माने जा रहे कर्मचारियों का कहना है कि ऐसा उन्होंनेयहाँ के डॉक्टरों के कहने पर किया था। वही डॉक्टर जिन्हें भगवान मानकर मरीज अस्पताल आता है और उसके घर वालेआशाभरी निगाहों से उसको देखते रहते हैं। इस कथन में कितनी सच्चाई है - इस बात को सिद्ध नहीं किया जा सकता हैलेकिन फिर भी चाहे जो हो उसके अन्दर एक आत्मा होती है और वह क्या ऐसे घृणित कार्य करने के लिए विरोध नहींकरती है । शायद नहीं , नहीं तो उनकी दया पर निर्भर मरीज को ऐसे जंगल में कौन फ़ेंक सकता है? अगर डॉक्टर ने ऐसाकहा है तो वह और भी शर्मनाक है लेकिन कोई भी कर्मचारी बगैर किसी ऊपर हाथ रखने वाले के ऐसा कदम नहीं उठासकता है। इसके पीछे उच्च कर्मचारी वर्ग का समर्थन या शह जरूर ही हैं।
शर्मनाक इस लिए तो है ही --साथ ही जब इसके लिए दोषी पाए गए वार्ड बॉय के खिलाफ कार्यवाहीकी गयी तो सभी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हड़ताल पर चले गए और बाद में उनके साथ जूनियर डॉक्टर भी मिल गए। इसके विषय में क्या कहा जा सकता है? ये कि इस कार्य को अंजाम देने वाले लोगों के साथ जूनियर डॉक्टर की भी साजिशरही होगी। एक तो चोरी और ऊपर से सीनाजोरी। अब होगी कार्यवाही - जांच के लिए समिति का गठन और इस समितिमें कौन लोग होंगे? वही अस्पताल वाले न फिर वे क्यों इसके खिलाफ रिपोर्ट देंगे और दी भी तो हम क्या कर लेंगे? मानवता के मुँह पर कालिख पोतते हुए ये भगवान इनके लिए जो भी दंड निर्धारित किया जाय काम है।
एक तरफ हमारा सुप्रीम कोर्ट अरुणा शानबाग जैसे मरीज को दया मृत्यु के लिए सहमत नहीं है औरउस अस्पताल के डॉक्टर और कर्मचारी भी उसके लिए प्रतिबद्ध है और दूसरी ओर जीवित लोगों को मरने के लिए जंगलमें फ़ेंक दिया गया क्योंकि वे अब कभी ठीक नहीं हो सकते हैं या फिर उनकी हालात में सुधार नहीं हो सकता है। अगरऐसा ही हो तो हमारे देश की आबादी बहुत जल्दी काम हो सकती है क्योंकि टाटा मेमोरिअल जैसे अस्पतालों में तोलाइलाज मरीज ही आते हैं और फिर अस्पताल सबको बाहर फिंकवा दे और डॉक्टरों की कोई जिम्मेदारी नहीं है। क्योंकिवहाँ आने वाले कम से कम ८० प्रतिशत मरीज को पूरी तरह से कभी ठीक होना ही नहीं होता है। कुछ वर्षों कि जिन्दगी केलिए क्यों जहमत उठाई जाए। लाखों रुपये खर्च किये जाय। ये महज एक खबर नहीं है बल्कि कुछ सोचने के लिएमजबूर करने वाली बात है और इसको सिर्फ विभागीय स्तर पर निपटाने वाली बात भी नहीं बल्कि इसको सरकार केसंज्ञान में लिया जाना चाहिए और अगर सरकार इसके लिए मजबूर है क्योंकि इसमें कुछ सम्मिलित लोग वर्ग विशेष केभी हो सकते हैं जिनपर मुख्यमंत्री जी की विशेष कृपा रहती है तो फिर उनके खिलाफ कार्यवाही हो ही नहीं सकती है। तबइसको हमें सर्वोच्च न्यायालय कि दहलीज पर ले कर जाना होगा।
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