भिक्षा - सतयुग हो या कलयुग - हमेशा काम देती है |
सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग में भिक्षा केवल ब्रह्मचारी मांगते थे |
आज कलयुग में :-
१. चौराहे पर गाडी खड़ी होते ही भिक्षा मांगते बच्चे |
२. ट्रेन में भिक्षा मांगते बच्चे |
३. प्लेटफार्म पर भिक्षा मांगते बच्चे |
४. स्कूल से एक कार्ड लाकर उसपर लिखकर भिक्षा मांगते स्कूली बच्चे |
चलो लोग कहते हैं की आज के बच्चे चौराहे, ट्रेन, प्लेटफार्म पर बच्चा है तो कोई बात नहीं कोई मजबूरी होगी | किन्तु एक बच्चा जो अच्छे स्कूल में जाता है, उसके घरवाले उसकी फीस बड़ी भरते हैं, की उसे समय में अध्ययन करने का, किन्तु वही बच्चा अपने अध्ययन के समय में से एक कार्ड लेकर भिक्षा मांगता है | अब अगर इनको प्राचीन गुरुकुल शिक्षा पद्धति को अपनाना है तो फिर सीधे क्यों नहीं अपना लेते, क्यों इस तरह फीस भी लेते हैं और फिर बच्चों से भिक्षा भी मंगवाते हैं | अब उसके परिवार ने तो फीस भर दी है | तो उसका पड़ने का समय ख़राब और उसकी भिक्षा मांगने की मानसिकता को उसमे क्यों पैदा कर रहे हैं | यह बात समझ नहीं आती है | इसका तो ठीक-ठीक मतलब यही है की भिक्षा मांगना ही किसी ब्रह्मचारी का पहला काम है | इस भिक्षा मांगने के नियम में जरूर कोई बात, जिससे उसका विकास होता है, और यह बात प्राचीन गुरुकुल के आचार्य जानते थे की विद्या जो है वह भिक्षा मांगकर ही सीखी जाती है, और विद्या बिना पैसे दिए ही सीखी जाती है | बिना पैसे देकर ली गयी विद्या ही अच्छी तरह से कोई सीख सकता है और लग्न से सीखता है | जो विद्या पैसे देकर सीखी जाती है वह विद्या व्यक्ति के विकास को पूरा नहीं कर पाती है, और सिखाने वाला भी अगर पैसे लेकर सिखाता है, तो उसका भी विकास रुक जाता है | इसलिए प्राचीन काल में आचार्य और गुरुकुल का सारा भर वहाँ के लोगों के ऊपर होता था, और वह भी केवल भिक्षा ही देते थे, और भिक्षा में केवल अन्न ही देते थे, कोई सोना-चाँदी नहीं देते थे | तो उस विद्या को पाकर विद्यार्थी पूर्ण विकास करता था | किन्तु समय के परिवर्तन के साथ और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले इसके लिए लोगों ने इसे खरीदना शुरू कर दिया और फिर विद्या भी बिकने लगी | किन्तु ज्ञान फिर भी नहीं बिकता है | जानकारी बेचीं और खरीदी जा सकती है किन्तु ज्ञान नहीं | और कालांतर में तो आध्यात्मिक विद्या भी बिकने लगी और लोग उसे भी व्यापर और व्यवसाय के रूप में लेने लगे और उसका उपयोग वह अपने जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए करने लगे | किन्तु फिर भी वह नहीं बिका अगर अध्यात्मिक ज्ञान भी इस तरह से बिक जाता तो कितने राजा-महाराजा, सेठ साहूकार, धनाड्य लोग भी आज उस आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त कर आत्मा को पा चुके होते | किन्तु जब कोई सोना-चाँदी, रुपया जैसी वस्तु में जीवन देखने लग जाता है और उसी के सहारे जीवन की हर उपलब्धि को पाना चाहता है, तो फिर वह एक साधारण से मानव में आत्म को नहीं देख पाता है और अपने आत्म के ज्ञान से चूक जाता है | यही बात हमेशा से ज्ञान और अज्ञान के बीच रही है | ज्ञान हमेशा से सेवा से पाया जाता है | बिना सेवा के ज्ञान नहीं मिलता है | जिसने भी सेवा से ज्ञान पाया है वही ज्ञान उसका सफल हुआ है |
सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग में भिक्षा केवल ब्रह्मचारी मांगते थे |
आज कलयुग में :-
१. चौराहे पर गाडी खड़ी होते ही भिक्षा मांगते बच्चे |
२. ट्रेन में भिक्षा मांगते बच्चे |
३. प्लेटफार्म पर भिक्षा मांगते बच्चे |
४. स्कूल से एक कार्ड लाकर उसपर लिखकर भिक्षा मांगते स्कूली बच्चे |
चलो लोग कहते हैं की आज के बच्चे चौराहे, ट्रेन, प्लेटफार्म पर बच्चा है तो कोई बात नहीं कोई मजबूरी होगी | किन्तु एक बच्चा जो अच्छे स्कूल में जाता है, उसके घरवाले उसकी फीस बड़ी भरते हैं, की उसे समय में अध्ययन करने का, किन्तु वही बच्चा अपने अध्ययन के समय में से एक कार्ड लेकर भिक्षा मांगता है | अब अगर इनको प्राचीन गुरुकुल शिक्षा पद्धति को अपनाना है तो फिर सीधे क्यों नहीं अपना लेते, क्यों इस तरह फीस भी लेते हैं और फिर बच्चों से भिक्षा भी मंगवाते हैं | अब उसके परिवार ने तो फीस भर दी है | तो उसका पड़ने का समय ख़राब और उसकी भिक्षा मांगने की मानसिकता को उसमे क्यों पैदा कर रहे हैं | यह बात समझ नहीं आती है | इसका तो ठीक-ठीक मतलब यही है की भिक्षा मांगना ही किसी ब्रह्मचारी का पहला काम है | इस भिक्षा मांगने के नियम में जरूर कोई बात, जिससे उसका विकास होता है, और यह बात प्राचीन गुरुकुल के आचार्य जानते थे की विद्या जो है वह भिक्षा मांगकर ही सीखी जाती है, और विद्या बिना पैसे दिए ही सीखी जाती है | बिना पैसे देकर ली गयी विद्या ही अच्छी तरह से कोई सीख सकता है और लग्न से सीखता है | जो विद्या पैसे देकर सीखी जाती है वह विद्या व्यक्ति के विकास को पूरा नहीं कर पाती है, और सिखाने वाला भी अगर पैसे लेकर सिखाता है, तो उसका भी विकास रुक जाता है | इसलिए प्राचीन काल में आचार्य और गुरुकुल का सारा भर वहाँ के लोगों के ऊपर होता था, और वह भी केवल भिक्षा ही देते थे, और भिक्षा में केवल अन्न ही देते थे, कोई सोना-चाँदी नहीं देते थे | तो उस विद्या को पाकर विद्यार्थी पूर्ण विकास करता था | किन्तु समय के परिवर्तन के साथ और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले इसके लिए लोगों ने इसे खरीदना शुरू कर दिया और फिर विद्या भी बिकने लगी | किन्तु ज्ञान फिर भी नहीं बिकता है | जानकारी बेचीं और खरीदी जा सकती है किन्तु ज्ञान नहीं | और कालांतर में तो आध्यात्मिक विद्या भी बिकने लगी और लोग उसे भी व्यापर और व्यवसाय के रूप में लेने लगे और उसका उपयोग वह अपने जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए करने लगे | किन्तु फिर भी वह नहीं बिका अगर अध्यात्मिक ज्ञान भी इस तरह से बिक जाता तो कितने राजा-महाराजा, सेठ साहूकार, धनाड्य लोग भी आज उस आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त कर आत्मा को पा चुके होते | किन्तु जब कोई सोना-चाँदी, रुपया जैसी वस्तु में जीवन देखने लग जाता है और उसी के सहारे जीवन की हर उपलब्धि को पाना चाहता है, तो फिर वह एक साधारण से मानव में आत्म को नहीं देख पाता है और अपने आत्म के ज्ञान से चूक जाता है | यही बात हमेशा से ज्ञान और अज्ञान के बीच रही है | ज्ञान हमेशा से सेवा से पाया जाता है | बिना सेवा के ज्ञान नहीं मिलता है | जिसने भी सेवा से ज्ञान पाया है वही ज्ञान उसका सफल हुआ है |
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