तुमसे बिछड़कर, जिन्दगी को जीना, अजीब-सा लगता है |
जिन्दगी का हर कोना, खाली-खाली सुनसान-सा लगता है |
पता नहीं, क्यूँ दिन में भी वीरानगी-सी लगती है |
पता नहीं, क्यूँ रात में भी महफ़िल-सी सजती है |
चन्द शेर निकल आते हैं, गम से डुबे हुए |
अपने को ही सुना लेते हैं, तुम में डुबे हुए |
यूँ ही गलियाँ नापते हैं, यूँ ही सड़कें नापते हैं |
कहीं किसी पुलिया पर, अपने में ही झांकते हैं |
चेहरा सामने होता है, दिमाग ठण्डा होता है |
आखें तुम्हें देखती हैं, पलकें न अब झेप्ति हैं |
रोज़ का किस्सा यही होता है |
जमाना मुझ पर हँसता है |
मेरा अपना मुझपर रोता है |
क्यूँ जिन्दगी यूँ खोता है |
क्या करें, अब तुझे, यूँ भुलाया नहीं जाता |
किसी और को तेरी जगह लाया नहीं जाता |
अब तो गम छिपा लेते हैं, ज़माने के काम हम भी आ लेते हैं |
चेहरे से सारे दिन हँसते रहें, रात को दिल खोलकर रो लेते हैं |
क्यूँ जाहिर करें, अपने गम जिन्दगी के |
बहाने ढूढते हैं, ज़माने को खुश करने के |
तुमसे बिछड़कर, जिन्दगी को जीना, अजीब-सा लगता है |
जिन्दगी का हर कोना, खाली-खाली सुनसान-सा लगता है |
.
जिन्दगी का हर कोना, खाली-खाली सुनसान-सा लगता है |
पता नहीं, क्यूँ दिन में भी वीरानगी-सी लगती है |
पता नहीं, क्यूँ रात में भी महफ़िल-सी सजती है |
चन्द शेर निकल आते हैं, गम से डुबे हुए |
अपने को ही सुना लेते हैं, तुम में डुबे हुए |
यूँ ही गलियाँ नापते हैं, यूँ ही सड़कें नापते हैं |
कहीं किसी पुलिया पर, अपने में ही झांकते हैं |
चेहरा सामने होता है, दिमाग ठण्डा होता है |
आखें तुम्हें देखती हैं, पलकें न अब झेप्ति हैं |
रोज़ का किस्सा यही होता है |
जमाना मुझ पर हँसता है |
मेरा अपना मुझपर रोता है |
क्यूँ जिन्दगी यूँ खोता है |
क्या करें, अब तुझे, यूँ भुलाया नहीं जाता |
किसी और को तेरी जगह लाया नहीं जाता |
अब तो गम छिपा लेते हैं, ज़माने के काम हम भी आ लेते हैं |
चेहरे से सारे दिन हँसते रहें, रात को दिल खोलकर रो लेते हैं |
क्यूँ जाहिर करें, अपने गम जिन्दगी के |
बहाने ढूढते हैं, ज़माने को खुश करने के |
तुमसे बिछड़कर, जिन्दगी को जीना, अजीब-सा लगता है |
जिन्दगी का हर कोना, खाली-खाली सुनसान-सा लगता है |
.
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
Thanks for your valuable comment.