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भ्रष्टाचार की गंगोत्री

Written By Sadhana Vaid on मंगलवार, 31 मई 2011 | 5:58 pm


अपने बचपन की याद है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर जब देश भर में जश्न मनाया जाता था और आज़ाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू तथा राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का भाषण रेडियो पर प्रसारित होता था या पिक्चर हॉल में न्यूज़ रील में दिखाया जाता था तो मन गर्व से भर उठता था ! हृदय में अगाध श्रृद्धा की तरंगें उठने लगती थीं और इस बात का अहसास मन को हमेशा चेताता रहता था कि कितनी मंहगी कीमत चुका कर यह आज़ादी हमें मिली है ! आज जिस आज़ाद हवा में हम साँस ले रहे हैं उसके लिये कितने वीरों ने अपनी जान की बाज़ी लगाई है और कितने उदारमना नेताओं और महापुरुषों ने अपने सभी सुखों को देश हित के लिये न्यौछावर कर वर्षों जेल की सलाखों के पीछे यातना भरे दिन बिताये हैं ! दिल में यह भावना रहती थी कि गाँधी, नेहरू, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, सुभाषचंद्र बोस, मदनमोहन मालवीय, वल्लभ भाई पटेल, वीर सावरकर, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, दादा भाई नोरोजी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अनेकों अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के प्रशस्त किये मार्ग पर अग्रसर होते हुए देश को विकास और सफलता के शिखर पर पहुँचाना है और सम्पूर्ण विश्व में इसके गौरव को स्थापित करना है !

लेकिन आज़ाद भारत की यह मनमोहक तस्वीर बहुत दिनों तक अपने आकर्षण को बनाये नहीं रख सकी ! अंदर ही अंदर भ्रष्टाचार की दीमक इसको चाट कर खोखला करने की तैयारी में जुट चुकी थी ! कहते हैं कि सत्ता यदि पूर्ण बहुमत के साथ मिले तो अधिकार के साथ भ्रष्टाचार को पनपने के लिये भी भरपूर खाद पानी मिल जाता है ! लोकतंत्र के लिये यह अच्छा शगुन नहीं है ! स्वतन्त्रता के बाद दिसंबर 1947 में महात्मा गाँधी ने भी यह भाँप लिया था कि राजनेता पैसा कमाने के लिये अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं और भ्रष्टाचार में लिप्त हो रहे हैं ! उन्होंने आंध्र प्रदेश के अपने एक वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी मित्र श्री वैन्कटपैया के एक उल्लेखनीय पत्र के बाद, जिसमें उन्होंने गाँधीजी को लिखा था कि कॉंग्रेस पार्टी का नैतिक पतन हो रहा है ! उसके नेता अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर पैसा कमाने में लगे हैं और लोगों में यह धारणा पनपने लगी है कि इससे तो ब्रिटिश रूल ही अच्छा था, गांधीजी ने यह सुझाव दिया था कि कॉंग्रेस पार्टी को भंग कर देना चाहिये पर उनकी यह बात मानी नहीं गयी ! भ्रष्टाचार की आमद की यह पहली दस्तक थी !

भारतीय राजनीति के हिमालय से भ्रष्टाचार की गंगोत्री का उदगम वी के कृष्णामेनन के जीप काण्ड से माना जा सकता है ( 1948 ) ! इसके बाद इस गंगोत्री का आकार कुछ बढ़ा और हरिदास मूंदडा काण्ड प्रकाश में आया जिसकी पोल श्री फिरोज गाँधी ने 1958 में संसद में खोली थी ! के. डी. मालवीय एवं सिराजुद्दीन का ऑइल स्कैम तथा धरम तेजा काण्ड भी नेहरू जी के कार्यकाल में ही हुए थे ! उन दिनों देश भावनात्मक रूप से इन नेताओं पर इतना निर्भर था कि ऐसी कोई भी बात आसानी से उसके विश्वास को डिगा नहीं सकती थी और आज की तरह उस समय मीडिया भी इतना सक्रिय नहीं था ! इसलिए इन घोटालों की चर्चा बहुत अधिक नहीं हुई और बातें वहीं दब गयीं !

समय के साथ भ्रष्टाचार की इस गंगोत्री में कई धाराएं और उपधाराएं मिलती चली गयीं और इसके रूप रंग आकार को और अधिक विस्तार और गहराई प्रदान करती गयीं ! 1971 के नागरवाला काण्ड और मारुती उद्योग की धाँधलियों को बांग्लादेश की विजय के सामने अनदेखा कर दिया गया ! 1981 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ए. आर. अंतुले के सीमेंट स्कैम जैसे अनेक घोटाले सामने आने लगे परन्तु 1987 में राजीव गाँधी के कार्यकाल में जब बोफोर्स तोप घोटाला प्रकाश में आया तो जनता का मोहभंग होना शुरू हुआ ! इसके बाद तो घोटालों का लंबा सिलसिला आरम्भ हो गया ! गंगोत्री अब पहाड़ों से उतर कर मैदानों में आ गयी थी और वृहद स्वरुप धारण कर चुकी थी ! यूरिया काण्ड (1990), हर्षद मेहता केतन पारेख काण्ड (1992), हवाला काण्ड (1993), सुखराम का टेलीकॉम घोटाला (1996), बिहार का चारा घोटाला (1996), जे. एम.एम. का रिश्वत काण्ड (1996) सबने राजनीति में भ्रष्टाचार की गहराई और विस्तार को इस तरह से उजागर किया कि आम जनता स्वयं को ठगा हुआ महसूस करने लगी ! तमाम बड़े बड़े नेताओं और उच्च पादासीन अधिकारियों के घरों से, यहाँ तक कि उनके बिस्तर के गद्दों तक से काला धन बरामद होने लगा ! जनता को समझ आने लगी कि उसका मेहनत से कमाया हुआ धन ये चंद भ्रष्ट और पतित नेता हड़प किये जा रहे हैं और जनता को नित नये करों के बोझ से लादते जा रहे हैं ! मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ती ही जा रही है ! संसद तथा टीवी चैनलों के टॉक शोज़ में निरंतर चलने वाली अंतहीन, अर्थहीन, और निरुद्देश्य बहसें जनता को कोई दिलासा या दिशा नहीं दे रही हैं !

मीडिया फिर भी सक्रियता के साथ अपनी भूमिका निभाता रहा है ! आरम्भ में नेताओं की ये खबरें प्राय: दबा दी जाती थीं ! अशिक्षा के कारण अखबारों की पहुँच बहुत कम लोगों तक सीमित थी लेकिन टी.वी. के आगमन तथा गाँव देहात तक फ़ैल जाने का एक फ़ायदा यह हुआ कि भष्टाचार की सारी खबरें घर घर पहुँचने लगीं ! नेताओं का कद घटने लगा ! उनके प्रति जनता के मन में मान सम्मान कम होने लगा और आक्रोश की आँच सुलगने लगी !

सत्ता में गहराई तक ऊँची पहुँच, धीमी न्याय प्रक्रिया और प्रशासन की मिलीभगत ने भ्रष्टाचार की जड़े और गहरी कीं और स्वार्थी नेताओं की ढिठाई और हौसले बुलंद होते चले गये ! अधिकार का दुरुपयोग कर कई नेताओं ने अनुचित तरीकों से अपने स्वार्थ साधने की कोशिश की और कतिपय बड़े लोगों को लाभ दिला कर अपना बैक बलैंस खूब मज़बूत किया ! प्रमोद महाजन का टेलीकॉम घोटाला (2002) इसी श्रेणी में आता है ! भ्रष्टाचार की यह गंगोत्री अब आकार प्रकार में सागर का रूप ग्रहण करने लगी ! पहले किये जाने वाले कुछ लाखों करोड़ों के घोटाले अब हज़ारों करोड़ों तक के आँकड़े को छूने लगे ! (2006) का अब्दुल करीम तेलगी का स्टैम्प घोटाला, (2009) का मधु कोड़ा काण्ड, (2010) का ए. राजा का टू जी स्पेक्ट्रम काण्ड, (2010) का कलमाड़ी का राष्ट्र मण्डल खेल घोटाला, (2010) का ही सत्यम घोटाला अब महासागर का रूप ले चुके हैं !

दिमाग में सवाल उठता है क्या इस समस्या का कोई निदान है ? आशा करते हैं कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे जुझारू कर्मठ एवं देशभक्त व्यक्तियों का प्रयास अवश्य रंग लायेगा और आज़ादी के बाद से लगातार चलने वाला यह सिलसिला अब ज़रूर टूटेगा ! हम सभी भारतीय उनके साथ हैं और उनके इस अभियान को अशेष शुभकामनायें देते हैं !

साधना वैद

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3 टिप्पणियाँ:

shyam gupta ने कहा…

अच्छा विश्लेषण ....

Bharat Bhushan ने कहा…

इस देश का सबसे बड़ा घोटाला छोटे स्तर के भ्रष्टाचारियों को खुली छूट देना है जो गरीबों के उत्थान के लिए बनाई गई योजनाओं का पैसा बीच से ही सोख लेते हैं.

shyam gupta ने कहा…

सही कहा भूषण जी----यथा राजा तथा प्रज़ा.....प्रज़ातन्त्र में ..प्रज़ा ही तो राज़ा है....जैसी जनता ( हम---चाहे अफ़सर, गरीब, अमीर कोई भी हो )वैसे ही कर्मचारी(हम-- नेता, कर्मचारी कोई भी हो )----छ्ह्टे स्तर पर ही भ्रष्टाचार को प्रश्रय न दिया जाय तो आगे कैसे बढे..

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