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वो चल रहा था, अकेला, तेज़-तेज़ क़दमों से, नज़र उसकी पहाड़ की छोटी पर थी, दूर से हो दिख रही थी, लोग उसे देखते, पर अनजाना जानकार, नज़र फेर लेते, रात हुई एक गाँव के बाहर, पास में कुआं था, उसे नहाया, धोया, सत्तू साना, गुड के साथ खाया, पानी पीकर, थोड़ी दूर, पेड़ की जड़ पर, सर रखकर, सो गया, थका था, नींद बड़ी गहरी आई, करीब आधी रात के बाद, नींद टूटी, आस-पास चांदनी छिडकी थी, उठा, नहाया, धोया, उसी पेड़ के नीचे ध्यान में बैठ गया, धुप निकल आई थी, ध्यान ने गर्मी पैदा की, पसीने से तरबतर हो गया, ध्यान से उठा, कुँए से पानी लिया, कमण्डल अपना भर लिया, आगे बड गया, चोटी दूर से दिख रही थी, चलते-चलते दस दिन के बाद, पहाड़ी के नीचे पहुंचा, तीन दिन की लगातार चढाई के बाद, ऊपर पहुंचा, एक छोटा मंदिर था, आस-पास नागों का डेरा था, थोडा डर गया था, तभी भीतर से आवाज़ गूंजी, जा सामने के मिट्टी के चबूतरे पर बैठ जा, आँख बंद कर, जब तक मैं न कहूं, उठना नहीं, डर मत यह कुछ नहीं करेंगे,
बैठते ही इतना हकलापन, शरीर का भान ख़त्म हो गया, बैठे-बैठे, दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह, महीने पर महीने, गुज़र गए, साल भर बाद, फिर आवाज़ आई, उठ, सीधा देखना, ईधर-उधर न देखना, बस नीचे उतर जाना, उतरते-उतरते, नीचे पहुंचा, अब वो, वो नहीं था, जो गया था ऊपर, यह कोई और ही था, जैसे-जैसे लोग उसको देखते, दूरी बनाकर, उसके ओज के सामने, अपना सर झुकाते, प्रणाम करते, अब वो अनजाना नहीं था, हर कोई उसके ओज के उजियारे में, अपने सपने देखना चाहता था, अपने ख्वाब पूरे करना चाहता था, पर वो चले जा रहा था, बेखबर, दुनिया से, उसकी धुन उसने छोड़ी नहीं थी, बस वो घूमता रहता, बस्ती-बस्ती, जंगल-जंगल, वीराने में, नगर-नगर, कभी उसे किसी ने सोता न देखा, खाता न देखा, बैठा न देखा, बोलता न देखा, बस चलते देखा, बस चलते देखा, चलते-चलते, एक दिन न जाने कहाँ गायब हो गया, उसके शरीर को भी न देखा, पर जिन राहों से गुज़ारा, जिनकी नज़रों के सामने से गुज़रा, लोगों से उसके उस तेजोमय स्वरुप को आखरी वक्त तक अपनी आँखों में संजो कर रखा, अपने आने वाली पीड़ी को बताया, सोचा की काश हमको भी यह दमक से दमकता ओज मिलता, उस अनजाने ने उनके अन्दर एक ओज को पाने की आश जगा दी, एक लौ लगा दी, एक लगती हुई अग्न की लग्न लगा दी, कभी न कभी इनको भी वो ओज नसीब होगा, वो भी दूर कहीं बैठेंगे, उस ओज को अपने में पैदा करेंगे, परमात्मा उनपर भी दया करेगा, उनको भी इसी तरह, उनके जहन में आकर, उसको राह दिखायेगा |
बैठते ही इतना हकलापन, शरीर का भान ख़त्म हो गया, बैठे-बैठे, दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह, महीने पर महीने, गुज़र गए, साल भर बाद, फिर आवाज़ आई, उठ, सीधा देखना, ईधर-उधर न देखना, बस नीचे उतर जाना, उतरते-उतरते, नीचे पहुंचा, अब वो, वो नहीं था, जो गया था ऊपर, यह कोई और ही था, जैसे-जैसे लोग उसको देखते, दूरी बनाकर, उसके ओज के सामने, अपना सर झुकाते, प्रणाम करते, अब वो अनजाना नहीं था, हर कोई उसके ओज के उजियारे में, अपने सपने देखना चाहता था, अपने ख्वाब पूरे करना चाहता था, पर वो चले जा रहा था, बेखबर, दुनिया से, उसकी धुन उसने छोड़ी नहीं थी, बस वो घूमता रहता, बस्ती-बस्ती, जंगल-जंगल, वीराने में, नगर-नगर, कभी उसे किसी ने सोता न देखा, खाता न देखा, बैठा न देखा, बोलता न देखा, बस चलते देखा, बस चलते देखा, चलते-चलते, एक दिन न जाने कहाँ गायब हो गया, उसके शरीर को भी न देखा, पर जिन राहों से गुज़ारा, जिनकी नज़रों के सामने से गुज़रा, लोगों से उसके उस तेजोमय स्वरुप को आखरी वक्त तक अपनी आँखों में संजो कर रखा, अपने आने वाली पीड़ी को बताया, सोचा की काश हमको भी यह दमक से दमकता ओज मिलता, उस अनजाने ने उनके अन्दर एक ओज को पाने की आश जगा दी, एक लौ लगा दी, एक लगती हुई अग्न की लग्न लगा दी, कभी न कभी इनको भी वो ओज नसीब होगा, वो भी दूर कहीं बैठेंगे, उस ओज को अपने में पैदा करेंगे, परमात्मा उनपर भी दया करेगा, उनको भी इसी तरह, उनके जहन में आकर, उसको राह दिखायेगा |
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