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हम आखरी लम्हों की एक-एक साँसें पी रहे थे

Written By Brahmachari Prahladanand on बुधवार, 12 अक्टूबर 2011 | 10:30 am

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हम आखरी लम्हों की एक-एक साँसें पी रहे थे,
स्वाद एक-एक सांस का लेकर जी रहे थे,

यूँ तो जिन्दगी भर कितनी साँसे हैं गवाईं,
लगता था जैसे मुफ्त में हैं पाईं,

पर आज जब अस्पताल हैं आये,
तब एक-एक सांस की पाई-पाई है चुकाई,

तब लगा की इन साँसों की कीमत क्या है,
जब लगा की इनके बिना न अब जिया है,

यही हालात हर तरफ होते हैं,
मुफ्त मिली चीज़ को न संभाल सोते हैं,

सारी जिन्दगी न जाने क्या-क्या खरीद लाते हैं,
थोडा भी इल्म पाते हैं, अपनी ढपली अपना राग बजाते हैं,

बहस-दर-बहस में उलझ जाते हैं,
जिन्दगी-ए-वक्त यूँ ही काट जाते हैं,

                                         ------- बेतखल्लुस


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