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- शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग -१-चित्रकूट......रचयिता -डा श्याम गुप्त

Written By shyam gupta on मंगलवार, 1 मार्च 2011 | 11:45 am

        




   शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
                                            
                                 विषय व भाव भूमि
              स्त्री -विमर्श  व नारी उन्नयन के  महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की  ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण  के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
             गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता  है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं  अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है|
                 समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
                   स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की क्या क्या भूमिकाएं  होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति  "शूर्पणखा" ; जिसकी नायिका   राम कथा के  दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों  व खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा | अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों के साथ  ९ सर्गों में रचित है |
            पिछ्ले  वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों में कृति के मूल भाव व सन्दर्भ का वर्णन किया गया था
 प्रस्तुत सर्ग -१-चित्रकूट से  इस काव्य-उपन्यास की मूल कथा प्रारम्भ होती है...महाकाव्यों व खंडकाव्यों की रीति के अनुसार मूल नायक के चरित्र को उभारने के क्रम में उसके चारों ओर की परिस्थियों ,अन्य पात्रों , स्थानों, घटनाओं के वर्णन की आवश्यकता होती है ..अतः यह कृति राम के चित्रकूट निवास व वहां की घटनाओं से प्रारम्भ होती है......कुल छंद २५ जो दो भागों में प्रस्तुत किया जायगा  --प्रस्तुत है सर्ग एक चित्रकूट का भाग एक ---छंद -१ से १२ तक ....

 १-
 प्रियजन परिजन मातु सहित सब,
सचिव , सैन्यगण और शत्रुहन; 
श्वसुर जनक के सहित सभी को,
कर अभिवादन यथायोग्य फिर;
गुरुजन गुरुतिय पद वंदन कर,
विदा भरत को किया राम ने ||
२-
सखा निषाद-राज को प्रभु ने,
विदा किया सम्मान सहित फिर |
पर्णकुटी सम्मुख बट-छाया,
सीता-अनुज सहित प्रभु बैठे;
और भरे मन बातें  करते ,
भरत के निश्छल प्रेम भाव की ||
३-
लक्षमण ! यह प्रेम भाव जग में,
सुन्दरतम, अनुपम, अतुल भाव |
जीवन-जग की सब परिभाषा,
है निहित इसी के अंतर में  |
यह प्रेम बसा है कण कण में,
इसलिए ईश  कण कण बसता ||
४-
लक्षमण बोले ,'प्रभु कण कण में,
है राम नाम की ही माया |'
जो नाम आपका एक बार,
लेता है, भव तर जाता है |
है प्रेम आपका ही प्रभुवर!
जो सरसाता है कण कण को ||
५-
पर भ्रात भरत के अतुल प्रेम,
की लक्ष्मण  कोइ परिधि नहीं |
वह निश्छल निस्पृह भ्रातृ-प्रेम,
सब सीमाओं की सीमा है  |
इस प्रेम-भाव का हे लक्ष्मण !
प्रभु स्वयं भक्त बन जाता है ||
६-
बन भक्ति, प्रेम और धर्मं-ध्वजा,
लक्ष्मण यह नेह-भक्ति जग में;
फहरेगी बन कर नाम -'भरत' |
भ्रातृ, सेव्य और  भक्ति प्रेम,
का होगा जग में नाम -भरत;
यश गाथा गायें दिग-दिगंत ||
७-
सीता बोलीं , ’लक्ष्मण तुम क्यों,
हो चुप चुप से उर में अधीर ?’
क्या भरत-प्रेम पर राम-कृपा -
से मन द्विधा के भाव भरे |
'माता मैं तो अति पुलकित मन',
लक्ष्मण बोले , पद गहि सिय के ||
८-
बड़भागी भरत,बसे उर प्रभु,
मैं अति बडभागी जो प्रभु की ; 
नित नित सेवा-सुख पाता हूँ | 
सुर मुनि व जगत को जो दुर्लभ,
सिय मातु सहित जो रघुवर की;
छवि के दर्शन नित नित पाऊँ ||
९- 
क्या भला चाह कर मुक्ति-मोक्ष,
प्रत्येक जन्म में हे माता!
इन चरणों का अनुगामी बन,
बस भक्ति मिले श्रेयस्कर है |
प्रभु-सुधा कृपा के वर्षण की,
अमृत-बूंदों का पान करूँ ||
१०-
मंदाकिनी-तट जल धारा में,
पद निरखि सिया के प्रभु पूछें -
बतलाएं प्रिये! ये पैर भला,
हम दोनों में किसके सुन्दर ?
बोलीं सिय,'भव्य चरण प्रभु के'-
इन चरणों से समता किसकी ||
११-
"जग-वन्दित पद जग-जननी के,
रति के भी पाँव लजाते हैं |''-
फिर भी हम कहते सत्य, नाथ !
'सुन्दर पद कमल आपके हैं ' |
विहँसे रघुनाथ न मानो तो,
तुम कहो उसी को बुलवाएँ ||
१२-
लक्ष्मण को दोनों ही प्रिय हैं,
हम दोनों के ही प्रिय लक्ष्मण |
वे सत्य-भाव से ही निर्णय ,
लेकर  के  हमें बताएँगे |
हँसि, राम बुलाये लक्ष्मण तब,
हे भ्रात ! करो निर्णय इसका ||   .......क्रमश:  चित्रकूट भाग दो....
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