देश में सीरियल ब्लास्ट की तरह लगातार खुलते जा रहे भ्रष्टाचार कांडों ने साबित कर दिया है कि देश की राजनीति में शीर्ष पर बैठे राजनीतिक नेता भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं। देश की दशा पर नजर रखने और दिशा देने वाला लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया भी इससे अछूता नहीं रह गया है। ऐसे में देश की दिशा तय करने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह असहाय से नजर आने लगे हैं। हालत ये हो गई कि लोग अब मजबूरी का नाम महात्मा गांधी की जगह मजबूरी का नाम मनमोहन वाला जुमला इस्तेमाल करने लगे हैं। खुद मिस्टर क्लीन मनमोहन सिंह ने भी जता दिया है कि वे मजबूर हैं। और मजबूरी सबसे बड़ी वजह है बताई है विभिन्न दलों की साझा सरकार।
कितने दुर्भाग्य की बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सर्वाधिक ईमानदार शख्स के कार्यकाल में ही शीर्ष पर बेईमानी के बड़े-बड़े कीर्तिमान कायम हुए और वह असहाय सा सियापा करता नजर आ रहा है। वे खुद की मिस्टर क्लीन की छवि भी कायम रखे हुए हैं और भ्रष्टाचार तथा महंगाई को गठबंधन की राजनीतिक मजबूरी जतला कर इसे पल्लवित भी होने दे रहे हैं। कैसी विडंबना है कि अर्थशास्त्र का प्रकांड विद्वान माने जाने वाले मनमोहन सिंह की सरकार में ही पहली बार महंगाई और आर्थिक अपराधों पर काबू पाने का हर उपाय विफल हो गया। यह नितांत हास्यास्पद और अफसोसनाक स्थिति है कि लोग उनके अर्थशास्त्र का जादू चलने के लिए मुंह बाये खड़े हैं और वे महंगाई व भ्रष्टाचार के टीले पर खड़े हो कर विकास की ऐसी बंसी बजाए जा रहे हैं, जिससे सुर ही रिदम से बाहर हो चुके हैं। उससे भी बड़ी बात ये कि न तो वे कुछ कर पाने की शिद्दत दिखाने की स्थिति में हैं और न ही पद छोड़ कर किसी और को मौका देना चाहते हैं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि महंगाई ने कम न होने की जिद पाल रखी है तो मनमोहन सिंह ने कुर्सी न छोडऩे की। उस पर भी ठप्पा ये कि गठबंधन सरकार ऐसी ही चलेगी। उससे निजात नहीं पाई जा सकती क्योंकि महंगाई का दंश झेल रहा यह देश हर छह माह में चुनाव का खर्च नहीं झेल सकता। ऐसे में अहम सवाल ये है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस स्वीकारोक्ति को कि उनसे चूक हुई है, गले उतरने दिया जाए। अव्वल तो जिसे वे चूक करार दे रहे हैं, उसे क्या चूक मान लिया जाए? हो सकता है शुरू में प्रधानमंत्री को इसकी भनक न लगी हो, किंतु इस मसले पर मीडिया और अन्य लोगों द्वारा मचाए गए शोर को उन्होंने न सुना हो, यह संभव नहीं है। एक सवाल ये भी क्या पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा अथवा राष्ट्रमंडल खेलों के प्रभारी सुरेश कलमाड़ी को दंडित कर दिए जाने मात्र से चूक की गंभीरता कम हो जाती है? क्या इतने भर से संतुष्ट हो लिया जाए कि आइंदा सतर्कता बरती जाए। क्या उनके इस संकल्प को विश्वास करने लायक माना जाए? ऐसे संकल्प का अर्थ ही क्या रह जाता है, जब नहीं टाले जाने वाली मजबूरियां भी गले पड़ी हुई हों?
तस्वीर के एक और रुख पर भी नजर डाल लें। दरअसल आज भले ही भ्रष्टाचार के एक के बाद एक कांड उजागर होने के कारण कांगे्रस सरकार बुरी तरह से घिर चुकी है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चुहंओर से हो रहे हमलों का केन्द्र बिंदु बन गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे बेहद कमजोर प्रधानमंत्री हैं। इस अर्थ में भी कि वे कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी के हाथों की कठपुतली हैं और इस अर्थ में भी कि अपने मंत्रीमंडल के सदस्यों पर ही उनका जोर नहीं चलता। मगर देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। जरा पीछे मुड़ कर देखें तो भाजपा के शीर्ष पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी भी जब प्रधानमंत्री थे तो वे भी बेहद मजबूर ही थे। वे भी एकाधिक और भिन्न-भिन्न वैचारिक दलों की गठजोड़ सरकार के मुखिया थे और अपने-अपने सूबों में वर्चस्व रखने वाली तीन राजनीतिक नेत्रियों जयललिता, मायावती और ममता बनर्जी ने उन्हें खूब नचाया था। उन्हें भी आए दिन नए राजनीतिक समझौते करने पड़ते थे। फर्क सिर्फ इतना है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में वे बेबस नजर आते हैं, जबकि वाजपेयी राजनीतिक निर्णय लेते वक्त मजबूर होते थे। क्या यह कम मजबूरी नहीं की केन्द्र में भाजपा नीत सरकार होते हुए भी गठजोड़ की सरकार होने के कारण भाजपा को अपना मूल एजेंडा ताक पर रखना पड़ा था। जिन मुद्दों को लेकर आज और पहले भी विपक्ष में बैठी भाजपा जोर-शोर से उठाती रही है, उन्हीं मुद्दों पर उसे अपने राज में चुप रहना पड़ा था। इस किस्म की राजनीतिक मजबूरियां राज्य सरकारों में भी उजागर हुई हैं। क्या यह इसे मजबूरी नहीं कहा जाना चाहिए कि राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत को सरकार बनाने के लिए पूरे ग्यारह निर्दलियों को मंत्री पद से नवाजना पड़ा, चाहे वे योग्य थे अथवा नहीं। सच्चाई तो ये है कि एक ओर तो वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ कर सुशासन देने की रट लगाते रहे और दूसरी ओर उनके कार्यकाल को सर्वाधिक भ्रष्ट माना जाने लगा।
बहरहाल, केन्द्र हो या राज्य, दोनों ही जगह, सरकारें कांग्रेस की हों या भाजपा की, या फिर किसी और की, गठबंधन की मजबूरी ने राजनीतिक चरित्र का पतन कर दिया है। अब यह तथ्य लगभग सुस्थापित हो चुका है कि क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद और व्यक्तिवाद के कारण उपजी बहुदलीय व्यवस्था भले ही हमारी मजबूरी हो गई हो, मगर यही रोग की असली जड़ भी है। इससे पूरी तरह से निजात तभी मिल पाएगी, जब द्विदलीय प्रणाली को अपनाएंगे। कम से कम राष्ट्रीय स्तर तो यह बेहद जरूरी हो गया है।
-गिरधर तेजवानी
कितने दुर्भाग्य की बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सर्वाधिक ईमानदार शख्स के कार्यकाल में ही शीर्ष पर बेईमानी के बड़े-बड़े कीर्तिमान कायम हुए और वह असहाय सा सियापा करता नजर आ रहा है। वे खुद की मिस्टर क्लीन की छवि भी कायम रखे हुए हैं और भ्रष्टाचार तथा महंगाई को गठबंधन की राजनीतिक मजबूरी जतला कर इसे पल्लवित भी होने दे रहे हैं। कैसी विडंबना है कि अर्थशास्त्र का प्रकांड विद्वान माने जाने वाले मनमोहन सिंह की सरकार में ही पहली बार महंगाई और आर्थिक अपराधों पर काबू पाने का हर उपाय विफल हो गया। यह नितांत हास्यास्पद और अफसोसनाक स्थिति है कि लोग उनके अर्थशास्त्र का जादू चलने के लिए मुंह बाये खड़े हैं और वे महंगाई व भ्रष्टाचार के टीले पर खड़े हो कर विकास की ऐसी बंसी बजाए जा रहे हैं, जिससे सुर ही रिदम से बाहर हो चुके हैं। उससे भी बड़ी बात ये कि न तो वे कुछ कर पाने की शिद्दत दिखाने की स्थिति में हैं और न ही पद छोड़ कर किसी और को मौका देना चाहते हैं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि महंगाई ने कम न होने की जिद पाल रखी है तो मनमोहन सिंह ने कुर्सी न छोडऩे की। उस पर भी ठप्पा ये कि गठबंधन सरकार ऐसी ही चलेगी। उससे निजात नहीं पाई जा सकती क्योंकि महंगाई का दंश झेल रहा यह देश हर छह माह में चुनाव का खर्च नहीं झेल सकता। ऐसे में अहम सवाल ये है कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस स्वीकारोक्ति को कि उनसे चूक हुई है, गले उतरने दिया जाए। अव्वल तो जिसे वे चूक करार दे रहे हैं, उसे क्या चूक मान लिया जाए? हो सकता है शुरू में प्रधानमंत्री को इसकी भनक न लगी हो, किंतु इस मसले पर मीडिया और अन्य लोगों द्वारा मचाए गए शोर को उन्होंने न सुना हो, यह संभव नहीं है। एक सवाल ये भी क्या पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा अथवा राष्ट्रमंडल खेलों के प्रभारी सुरेश कलमाड़ी को दंडित कर दिए जाने मात्र से चूक की गंभीरता कम हो जाती है? क्या इतने भर से संतुष्ट हो लिया जाए कि आइंदा सतर्कता बरती जाए। क्या उनके इस संकल्प को विश्वास करने लायक माना जाए? ऐसे संकल्प का अर्थ ही क्या रह जाता है, जब नहीं टाले जाने वाली मजबूरियां भी गले पड़ी हुई हों?
तस्वीर के एक और रुख पर भी नजर डाल लें। दरअसल आज भले ही भ्रष्टाचार के एक के बाद एक कांड उजागर होने के कारण कांगे्रस सरकार बुरी तरह से घिर चुकी है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चुहंओर से हो रहे हमलों का केन्द्र बिंदु बन गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे बेहद कमजोर प्रधानमंत्री हैं। इस अर्थ में भी कि वे कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी के हाथों की कठपुतली हैं और इस अर्थ में भी कि अपने मंत्रीमंडल के सदस्यों पर ही उनका जोर नहीं चलता। मगर देश के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। जरा पीछे मुड़ कर देखें तो भाजपा के शीर्ष पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी भी जब प्रधानमंत्री थे तो वे भी बेहद मजबूर ही थे। वे भी एकाधिक और भिन्न-भिन्न वैचारिक दलों की गठजोड़ सरकार के मुखिया थे और अपने-अपने सूबों में वर्चस्व रखने वाली तीन राजनीतिक नेत्रियों जयललिता, मायावती और ममता बनर्जी ने उन्हें खूब नचाया था। उन्हें भी आए दिन नए राजनीतिक समझौते करने पड़ते थे। फर्क सिर्फ इतना है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के बड़े मामलों में वे बेबस नजर आते हैं, जबकि वाजपेयी राजनीतिक निर्णय लेते वक्त मजबूर होते थे। क्या यह कम मजबूरी नहीं की केन्द्र में भाजपा नीत सरकार होते हुए भी गठजोड़ की सरकार होने के कारण भाजपा को अपना मूल एजेंडा ताक पर रखना पड़ा था। जिन मुद्दों को लेकर आज और पहले भी विपक्ष में बैठी भाजपा जोर-शोर से उठाती रही है, उन्हीं मुद्दों पर उसे अपने राज में चुप रहना पड़ा था। इस किस्म की राजनीतिक मजबूरियां राज्य सरकारों में भी उजागर हुई हैं। क्या यह इसे मजबूरी नहीं कहा जाना चाहिए कि राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत को सरकार बनाने के लिए पूरे ग्यारह निर्दलियों को मंत्री पद से नवाजना पड़ा, चाहे वे योग्य थे अथवा नहीं। सच्चाई तो ये है कि एक ओर तो वे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ कर सुशासन देने की रट लगाते रहे और दूसरी ओर उनके कार्यकाल को सर्वाधिक भ्रष्ट माना जाने लगा।
बहरहाल, केन्द्र हो या राज्य, दोनों ही जगह, सरकारें कांग्रेस की हों या भाजपा की, या फिर किसी और की, गठबंधन की मजबूरी ने राजनीतिक चरित्र का पतन कर दिया है। अब यह तथ्य लगभग सुस्थापित हो चुका है कि क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद और व्यक्तिवाद के कारण उपजी बहुदलीय व्यवस्था भले ही हमारी मजबूरी हो गई हो, मगर यही रोग की असली जड़ भी है। इससे पूरी तरह से निजात तभी मिल पाएगी, जब द्विदलीय प्रणाली को अपनाएंगे। कम से कम राष्ट्रीय स्तर तो यह बेहद जरूरी हो गया है।
-गिरधर तेजवानी
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