क्या इसके लिए कवि, संपादक और प्रकाशक माफी मांगेंगे ?
स्वराज्य करुण
मानव-जीवन के अनेकानेक रंगों में हँसी-मजाक और हास्य-व्यंग्य के रंगों का होना भी ज़रूरी है,नहीं तो हमारा जीवन नीरस हो जाएगा . लेकिन हँसी-मजाक भी ऐसा होना चाहिए , जिससे किसी समाज या वर्ग विशेष के मान - सम्मान को आघात न लगे . अगर हँसी-मजाक का पात्र समाज के किसी ऐसे कमज़ोर तबके को बनाया जाए , जो दिन-प्रतिदिन के जीवन-संघर्ष में कड़ी मेहनत कर अपने बाल-बच्चों के लिए और अपने लिए दो वक्त के भोजन का जुगाड़ करता हो , तो क्या यह उसके जीवन-संघर्ष का अपमान नहीं होगा ?
दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा हुआ है और वह भी आज होली के दिन . मैंने हिन्दी दैनिक 'भास्कर ' रायपुर के बारहवें पृष्ठ पर 'होली -स्पेशल ' में किसी सुरेन्द्र दुबे की एक कविता पढ़ी , जिसमें काम वाली बाइयों पर हास्य-व्यंग्य के नाम पर भारत के दलित-शोषित समाज की लाखों-करोड़ों घरेलू नौकरानियों के चरित्र का बेहूदा मजाक बना कर उन्हें अपमानित किया गया है. इस कविता के साथ सुरेन्द्र दुबे की एक हँसती हुई तस्वीर भी है,जिसमें उनका परिचय एक 'सोशल नेट-वर्किंग फ्रेंडली कवि' के रूप में दिया गया है .कवि का परिचय अपनी जगह है ,लेकिन 'साहेब मेरे फेसबुक फ्रेंड हैं' शीर्षक से छपी उनकी लतीफा छाप कविता में काम वाली बाई को घर की मालकिन से यह कहते बताया गया है कि 'साहब ' की तरह वह भी फेसबुक का उपयोग करती है और 'साहब' उसके फेसबुक फ्रेंड हैं और उसके प्रत्येक अपडेट पर बिंदास कमेन्ट लिखते हैं . कमेन्ट लिखने की बात से कवि का आशय क्या है ,यह आसानी से समझने की बात है .लेकिन आगे देखिये , यह लतीफेबाज कवि अपने द्विअर्थी शब्दों से किस तरह घरेलू नौकरानियों के चरित्र का मजाक उड़ा रहा है --
" अचानक दोबारा फोन करके
पत्नी ने काम वाली बाई से पूछा
घबराए-घबराए ,
तेरे पास गोवा जाने के लिए
पैसे कहाँ से आए ?
वह बोली- सक्सेना जी के साथ
एलटीसी पर आयी हूँ ,
पिछले साल वर्मा जी के साथ
उनकी काम वाली बाई गयी थी ,
तब मै नयी-नयी थी ,
जब मैंने रोते हुए उन्हें
अपनी जलन का कारण बताया
तब उन्होंने ही समझाया
कि वर्माजी की काम वाली बाई के
भाग्य से बिल्कुल मत जलना .
अगले साल दिसम्बर में
मैडम जब मायके जाएगी ,
तब तू मेरे साथ चलना "
अपनी इन पंक्तियों में यह कवि देश की काम वाली बाइयों के व्यक्तित्व को जिस रूप में प्रस्तुत कर रहा है ,वह वाकई हमारे समाज के इस मेहनतकश वर्ग के लिए घोर आपत्तिजनक है.यह कविता फेसबुक पर आने-जाने वाले लोगों के चरित्र पर भी काल्पनिक सवाल उठाती है और उसके माध्यम से आगे की पंक्तियाँ तो गरीब तबके की महिलाओं की अस्मिता पर और उनके स्वाभिमान पर और भी ज्यादा बेशर्मी से प्रहार करती है.आप भी पढ़ लीजिए --
" हर कोई फेस बुक में बिजी है
आदमी कम्यूटर के सामने
रात-रात भर जागता है ,
बिंदास बातें करने के लिए
पराई औरतों के पीछे भागता है ,
लेकिन इस प्रकरण से
मेरी समझ में यह बात आयी है
कि जिसे वह बिंदास मॉडल
समझ रहा है ,
वह तो किसी की काम वाली बाई है ,
जिसने कन्फ्यूज करने के लिए
किसी जवान सुंदर लड़की की
फोटो लगाई है "
दोस्तों ! एक सामान्य पाठक और आम नागरिक की हैसियत से मेरा सवाल यह है कि क्या फेसबुक पर हर आदमी केवल औरतों से तथा कथित बिंदास बातें करने के लिए ही कम्प्यूटर का इस्तेमाल करता है ? क्या फेसबुक सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों और गरीबी, बेरोजगारी ,भ्रष्टाचार , हिंसा और आतंकवाद जैसी गंभीर राष्ट्रीय समस्याओं पर नागरिकों के बीच परस्पर संवाद और विचार-विमर्श का मंच नहीं हैं ? इस कवि ने तो हर आदमी को एक ही पलड़े में तौल दिया है .इसलिए यह आदमियों का भी अपमान तो है ही , कविता में यह कहना कि काम वाली बाई द्वारा ( आदमी को ) भ्रमित करने के लिए (फेस बुक पर ) किसी जवान सुंदर लड़की की फोटो लगाई गयी है , घरेलू नौकरानियों के चरित्र पर लांछन लगाना और उन्हें अपमानित करना नहीं ,तो और क्या है ?
क्या ऐसा नहीं लगता कि इस भद्दी कविता को लिखने वाले की नज़रों में इस आधुनिक युग में भी घरेलू नौकरानियों की औकात गुलाम युग की दासियों से कुछ अधिक नहीं है ? कवि ने हास्य पैदा करने के चक्कर में यह नहीं सोचा कि चाहे अमीर हो ,या गरीब , बहू-बेटियाँ तो हर किसी के घर-परिवार में होती हैं .हमें सबके सम्मान का ध्यान रखना चाहिए . आर्थिक मजबूरियों के कारण आजीविका के लिए दूसरों के घरों में चौका -चूल्हा और झाडू-पोंछा कर महंगाई के इस कठिन दौर में किसी तरह अपने घर की गाड़ी खींच रही ये 'काम वाली बाईयां ' अधिकाँश दलित तबके की होती हैं, ऐसे में यह कविता देश के करोड़ों दलित परिवारों और उनकी मेहनतकश बहू-बेटियों को निश्चित रूप से अपमानित करती है .इसलिए यह कविता निंदनीय है . क्या इसके लिए लतीफेबाज कवि , उनकी इस बेहूदी कविता का चयन करने वाले संपादक और उसे जनता के सामने पेश करने वाले प्रकाशक दलित परिवारों की बहू- बेटियों के इस अपमान पर ' काम वाली बाइयों ' से याने कि देश की करोड़ों दलित महिलाओं से माफी मांगने की नैतिकता दिखाएंगे ?
स्वराज्य करुण
मानव-जीवन के अनेकानेक रंगों में हँसी-मजाक और हास्य-व्यंग्य के रंगों का होना भी ज़रूरी है,नहीं तो हमारा जीवन नीरस हो जाएगा . लेकिन हँसी-मजाक भी ऐसा होना चाहिए , जिससे किसी समाज या वर्ग विशेष के मान - सम्मान को आघात न लगे . अगर हँसी-मजाक का पात्र समाज के किसी ऐसे कमज़ोर तबके को बनाया जाए , जो दिन-प्रतिदिन के जीवन-संघर्ष में कड़ी मेहनत कर अपने बाल-बच्चों के लिए और अपने लिए दो वक्त के भोजन का जुगाड़ करता हो , तो क्या यह उसके जीवन-संघर्ष का अपमान नहीं होगा ?
दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा हुआ है और वह भी आज होली के दिन . मैंने हिन्दी दैनिक 'भास्कर ' रायपुर के बारहवें पृष्ठ पर 'होली -स्पेशल ' में किसी सुरेन्द्र दुबे की एक कविता पढ़ी , जिसमें काम वाली बाइयों पर हास्य-व्यंग्य के नाम पर भारत के दलित-शोषित समाज की लाखों-करोड़ों घरेलू नौकरानियों के चरित्र का बेहूदा मजाक बना कर उन्हें अपमानित किया गया है. इस कविता के साथ सुरेन्द्र दुबे की एक हँसती हुई तस्वीर भी है,जिसमें उनका परिचय एक 'सोशल नेट-वर्किंग फ्रेंडली कवि' के रूप में दिया गया है .कवि का परिचय अपनी जगह है ,लेकिन 'साहेब मेरे फेसबुक फ्रेंड हैं' शीर्षक से छपी उनकी लतीफा छाप कविता में काम वाली बाई को घर की मालकिन से यह कहते बताया गया है कि 'साहब ' की तरह वह भी फेसबुक का उपयोग करती है और 'साहब' उसके फेसबुक फ्रेंड हैं और उसके प्रत्येक अपडेट पर बिंदास कमेन्ट लिखते हैं . कमेन्ट लिखने की बात से कवि का आशय क्या है ,यह आसानी से समझने की बात है .लेकिन आगे देखिये , यह लतीफेबाज कवि अपने द्विअर्थी शब्दों से किस तरह घरेलू नौकरानियों के चरित्र का मजाक उड़ा रहा है --
" अचानक दोबारा फोन करके
पत्नी ने काम वाली बाई से पूछा
घबराए-घबराए ,
तेरे पास गोवा जाने के लिए
पैसे कहाँ से आए ?
वह बोली- सक्सेना जी के साथ
एलटीसी पर आयी हूँ ,
पिछले साल वर्मा जी के साथ
उनकी काम वाली बाई गयी थी ,
तब मै नयी-नयी थी ,
जब मैंने रोते हुए उन्हें
अपनी जलन का कारण बताया
तब उन्होंने ही समझाया
कि वर्माजी की काम वाली बाई के
भाग्य से बिल्कुल मत जलना .
अगले साल दिसम्बर में
मैडम जब मायके जाएगी ,
तब तू मेरे साथ चलना "
अपनी इन पंक्तियों में यह कवि देश की काम वाली बाइयों के व्यक्तित्व को जिस रूप में प्रस्तुत कर रहा है ,वह वाकई हमारे समाज के इस मेहनतकश वर्ग के लिए घोर आपत्तिजनक है.यह कविता फेसबुक पर आने-जाने वाले लोगों के चरित्र पर भी काल्पनिक सवाल उठाती है और उसके माध्यम से आगे की पंक्तियाँ तो गरीब तबके की महिलाओं की अस्मिता पर और उनके स्वाभिमान पर और भी ज्यादा बेशर्मी से प्रहार करती है.आप भी पढ़ लीजिए --
" हर कोई फेस बुक में बिजी है
आदमी कम्यूटर के सामने
रात-रात भर जागता है ,
बिंदास बातें करने के लिए
पराई औरतों के पीछे भागता है ,
लेकिन इस प्रकरण से
मेरी समझ में यह बात आयी है
कि जिसे वह बिंदास मॉडल
समझ रहा है ,
वह तो किसी की काम वाली बाई है ,
जिसने कन्फ्यूज करने के लिए
किसी जवान सुंदर लड़की की
फोटो लगाई है "
दोस्तों ! एक सामान्य पाठक और आम नागरिक की हैसियत से मेरा सवाल यह है कि क्या फेसबुक पर हर आदमी केवल औरतों से तथा कथित बिंदास बातें करने के लिए ही कम्प्यूटर का इस्तेमाल करता है ? क्या फेसबुक सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों और गरीबी, बेरोजगारी ,भ्रष्टाचार , हिंसा और आतंकवाद जैसी गंभीर राष्ट्रीय समस्याओं पर नागरिकों के बीच परस्पर संवाद और विचार-विमर्श का मंच नहीं हैं ? इस कवि ने तो हर आदमी को एक ही पलड़े में तौल दिया है .इसलिए यह आदमियों का भी अपमान तो है ही , कविता में यह कहना कि काम वाली बाई द्वारा ( आदमी को ) भ्रमित करने के लिए (फेस बुक पर ) किसी जवान सुंदर लड़की की फोटो लगाई गयी है , घरेलू नौकरानियों के चरित्र पर लांछन लगाना और उन्हें अपमानित करना नहीं ,तो और क्या है ?
क्या ऐसा नहीं लगता कि इस भद्दी कविता को लिखने वाले की नज़रों में इस आधुनिक युग में भी घरेलू नौकरानियों की औकात गुलाम युग की दासियों से कुछ अधिक नहीं है ? कवि ने हास्य पैदा करने के चक्कर में यह नहीं सोचा कि चाहे अमीर हो ,या गरीब , बहू-बेटियाँ तो हर किसी के घर-परिवार में होती हैं .हमें सबके सम्मान का ध्यान रखना चाहिए . आर्थिक मजबूरियों के कारण आजीविका के लिए दूसरों के घरों में चौका -चूल्हा और झाडू-पोंछा कर महंगाई के इस कठिन दौर में किसी तरह अपने घर की गाड़ी खींच रही ये 'काम वाली बाईयां ' अधिकाँश दलित तबके की होती हैं, ऐसे में यह कविता देश के करोड़ों दलित परिवारों और उनकी मेहनतकश बहू-बेटियों को निश्चित रूप से अपमानित करती है .इसलिए यह कविता निंदनीय है . क्या इसके लिए लतीफेबाज कवि , उनकी इस बेहूदी कविता का चयन करने वाले संपादक और उसे जनता के सामने पेश करने वाले प्रकाशक दलित परिवारों की बहू- बेटियों के इस अपमान पर ' काम वाली बाइयों ' से याने कि देश की करोड़ों दलित महिलाओं से माफी मांगने की नैतिकता दिखाएंगे ?
स्वराज्य करुण
5 टिप्पणियाँ:
hm aapke sath hen . akhtar khan akela kota rajsthan
यह लो हो गया ताड़ का तिल लिखते लिखते दुबे जी ने लगता है कुछ ज्यादा भाँग पी होगी
होलियाना मुड में दुबे जी गलती जायज लगती है
जाने दीजिये
होली की हार्दिक शुभकामनायें
manish jaiswal
Bilaspur
chhattisgarh
--ब्लोग पर होता है एसा, पर पजामे के अन्दर सब नंगे होते हैं तो क्या आदमी को नन्गा घूमना चाहिये?
-- हास्य-व्यन्ग्य आजकल मूर्खता/फ़ूहड्बाज़ी/अश्लीलता का पर्याय बनता जारहा है,वैसे भी वह कोई साहित्य तो होता नहीं है बस फ़ूहड तुकबाज़ी ही होती है....
--उन्हें माफ़ी तो समाज व साहित्य दोनों से ही मांगनी चाहिये...
@मनीष जी ! होलियाना मूड के नाम पर दलितों की बहू-बेटियों को अपमानित करने की कवि की इस गलती को जायज कैसे मान लें ?
दोस्तों ! एक सामान्य पाठक और आम नागरिक की हैसियत से मेरा सवाल यह है कि क्या फेसबुक पर हर आदमी केवल औरतों से तथा कथित बिंदास बातें करने के लिए ही कम्प्यूटर का इस्तेमाल करता है ? क्या फेसबुक सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों और गरीबी, बेरोजगारी ,भ्रष्टाचार , हिंसा और आतंकवाद जैसी गंभीर राष्ट्रीय समस्याओं पर नागरिकों के बीच परस्पर संवाद और विचार-विमर्श का मंच नहीं हैं ? इस कवि ने तो हर आदमी को एक ही पलड़े में तौल दिया है .इसलिए यह आदमियों का भी अपमान तो है ही , कविता में यह कहना कि काम वाली बाई द्वारा ( आदमी को ) भ्रमित करने के लिए (फेस बुक पर ) किसी जवान सुंदर लड़की की फोटो लगाई गयी है , घरेलू नौकरानियों के चरित्र पर लांछन लगाना और उन्हें अपमानित करना नहीं ,तो और क्या है ?
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