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अगज़ल ----- दिलबाग विर्क

Written By डॉ. दिलबागसिंह विर्क on सोमवार, 21 मार्च 2011 | 9:18 pm

   शाम हो चुकी है , डूब रहा है आफ़ताब यारो 
  मुझे भी पिला दो अब तुम घूँट दो घूँट शराब यारो .

 दिन तो उलझनों में बीता , रात को ख्वाबों का डर है 
 या बेहोश कर दो या फिर कर दो नींद खराब यारो .

 बुरी चीजों को क्योंकर गले लगा लेते हैं सब लोग 
 तुम खुद ही समझो , नहीं है मेरे पास जवाब यारो .

 जश्न मनाओ , आसानी से नहीं मिला मुझे ये मुकाम 
 खूने-जिगर दे पाया है , बेवफाई का ख़िताब यारो .

 एक छोटा-सा दिल टूटा और उम्र भर के गम मिल गए 
 नफे में ही रहे होंगे , लगाओ थोडा हिसाब यारो .

 किसे सजाकर रखें किसे न , बस 'विर्क' यही उलझन है
 मुहब्बत में मिला हर जख्म निकला है लाजवाब यारो .
                         * * * * *  
                         http://sahityasurbhi.blogspot.com/              
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