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लघुकथा ----- दिलबाग विर्क

Written By डॉ. दिलबागसिंह विर्क on सोमवार, 28 मार्च 2011 | 9:08 pm

         बैकडोर एंट्री                 
" यह बैकडोर व्यवस्था कहीं भी पीछा नहीं छोडती ."- बैंक में मेरे साथ ही लाइन में खड़े एक युवक ने पिछली खिड़की से राशि निकलवाकर जाते आदमी को देखकर कहा .
' कोई मजबूरी होगी .'- मैंने सहज भाव से कहा .
" तो क्या हम बेकार हैं जो घंटे भर से खड़े हैं ? "- उसने कहा .
' चलो वक्त का थोडा नुकसान है , सब्र करो .'- मैंने हौंसला बंधाते हुए कहा .
" अकेले वक्त का नहीं , यह व्यवस्था तो जिंदगियां भी बर्बाद करती है ."-उसकी आवाज़ में रोष था .
' वो कैसे ? '- मैंने पूछा .
" इसी व्यवस्था के कारण कुछ लोग नौकरियां पा जाते हैं तो कुछ गलियों की खाक छानने को मजबूर हो जाते हैं ."-उसने निराश होकर कहा .
' नौकरी में बैकडोर व्यवस्था ? '- मैंने हैरानी से पूछा .
" एडहोक , ठेका , गेस्ट आदि के नाम पर भर्ती बैकडोर एंट्री ही तो है ."
' कैसे ? '- मैंने पूछा .'
" यह नियुक्तियां स्थानीय अधिकारीयों द्वारा बिना मैरिट के की जाती हैं . इनमें सिफारिश और रिश्वत का बोलबाला अधिक होता है . पहुंच वाले नौकरी खरीद लेते हैं और हम जैसे गरीब और सामान्य लोग देखते रह जाते हैं ."-उसने रुआंसा होकर कहा .
' ये भर्ती नियमित तो नहीं होती .'- मैंने तर्क दिया .
" ठीक कहते हैं आप , परन्तु ये लोग यूनियन बनाकर सरकार पर दवाब डालते हैं और वोटों की राजनीति करने वाले नेता इन्हें स्थायी कर देते हैं ."- उसकी आवाज़ में मायूसी थी .
' अच्छा ! ऐसा भी होता है .'- मैं चौंका .
" ऐसा ही तो होता है मेरे महान देश में ."- उसने कटाक्ष किया . मैं उसकी आँखों में सिफारिश के अभाव और गरीबी के कारण नौकरी न खरीद पाने के दुःख और भारतीय समाज में प्रचलित बैकडोर एंट्री की व्यवस्था के प्रति आक्रोश को स्पष्ट देख रहा था . 
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