संसदीय लोकतंत्र के तीन पायों की टकराहट कभी-कभी अप्रिय दृश्य उत्पन्न कर देती है. कल झारखंड विधान सभा में कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ. सूबे की राजधानी रांची के एक इलाके में कोर्ट के आदेश पर कई भवनों का बिजली पानी का संयोग काट दिया गया. विधान सभा में इसे पूरी तरह जन-विरोधी बताया गया. स्पीकर से लेकर विधायक तक सभी ने कोर्ट के फैसले पर नाराज़गी व्यक्त की. पूर्व उपमुख्यमंत्री रघुवर दास ने तो सीधे तौर पर कह दिया कि विधायिका के ऊपर कोई नहीं है. विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह बाद में मुख्य न्यायधीश से इस मुद्दे पर मिले. उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि सरकार ने संज्ञान ले लिया है. कनेक्सन फिर जोड़ दिए जायेंगे. हाई कोर्ट ने यह आदेश एक जाहित याचिका की सुनवाई करते हुए उन भवनों के लिए दिया था जिनका निर्माण रांची क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण के बिल्डिंग बाइलाज का उलंघन कर हुआ था. ऐन होली के वक़्त इस तरह की कार्रवाई कुछ जनविरोधी कही जा सकती है. लेकिन इसे अमली जामा पहनाने में जो प्रशासनिक तत्परता दिखाई गयी क्या वह न्यायपालिका के प्रति उसके सम्मान का सूचक था...? इसे समझने के लिए न्यायलय के कुछ और आदेशों पर नज़र डालने की ज़रूरत है.
इसी 16 मार्च को झारखंड हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश भगवती प्रसाद और न्यायमूर्ति डीएन पटेल की खंडपीठ ने गिरिडीह पेयजलापूर्ति योजना में शिथिलता सम्बन्धी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इस योजना के कार्यपालक अभियंता राजेंद्र प्रसाद के विरुद्ध कार्रवाई का मौखिक आदेश दिया. विभाग ने कार्रवाई करने की जगह उन्हें प्रोन्नत कर उपनिदेशक बना दिया. जिस का. अभियंता को जनता ने अकर्मण्य मानकर जनहित याचिका दायर की. जिसे कोर्ट ने कार्रवाई के योग्य माना. वह कार्यपालिका की नज़र में योग्य और प्रोन्नति का पात्र समझा गया. कोर्ट ने आपत्ति व्यक्त की तो जवाब दिया गया कि मौखिक आदेश पर कार्रवाई में दिक्कत है. यानी कोर्ट लिखित आदेश दे तो उसे अयोग्य मान लिया जायेगा वरना वह इनाम के काबिल है. उसने अपनी जिम्मेवारी किस हद तक पूरी की इससे विभाग को कुछ भी लेने-देना नहीं. इसी तरह प्रशासनिक अधिकारियों के सेवा मामलों की सुनवाई करने वाले कैट ने करीब डेढ़ महीने पहले वरीय आइपीएस अधिकारी पीएस नटराजन का निलंबन तत्काल प्रभाव से रद्द कर सेवा बहाल करने का आदेश दिया. साथ ही कहा कि सरकार चाहे तो विभागीय जांच और कार्रवाई जारी रख सकती है. वे पिछले छः वर्षों से निलंबित हैं. उनपर यौन शोषण का आरोप है. लेकिन जब उन्हें निलंबित किया गया था तबतक उनके विरुद्ध न कोई प्राथमिकी दर्ज थी न ही कोई विभागीय जांच चल रही थी. नियमतः किसी आइपीएस या आइएएस अधिकारी को इतनी लम्बी अवधि तक निलंबित रखने का कोई प्रावधान नहीं है. इस बीच या तो निलंबनमुक्त कर दिया jaana चाहिए था या फिर बर्ख्वास्तगी की अनुशंसा की जानी चाहिए थी. कैट के आदेश के बाद आदर्श स्थिति यही थी कि उन्हें निलंबन मुक्त कर विभागीय कार्रवाई के लपेटे में ले लिया जाता लेकिन विभाग के लोग गांठ बांध कर बैठे हैं कि सेवा बहाल नहीं होने देंगे. उनकी सेवा अब एक-डेढ़ साल बची है. सरकार टालमटोल कर यह अवधि पार कर देना चाहती है.अब बताएं कहाँ है कोर्ट और कहां उसका आदेश. आदेश मनोनुकूल लगा तो सर आँखों पर वरना "हमारी मर्ज़ी".
यह भी सच है कि हाल के वर्षों में जनहित के अधिकांश काम न्यायपालिका के आदेश पर ही हुए. सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीश एके गांगुली ने सार्वजानिक तौर पर कहा कि अदालतें अपनी हदों को पार कर गवर्नेंस संस्था की तरह काम करने को विवश हैं. सच पूछें तो तमाम लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति जनता की आस्था घटी है.लोक सभा और विधान सभाओं में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का जमावड़ा. उनका गैरजिम्मेवाराना आचरण आमजन के मोहभंग का कारण बना है. ऐसा नहीं कि न्यायपालिका के दामन पर दाग नहीं हैं लेकिन जनता का विश्वास न्यायपालिका पर है. उसे लगता है कि कुछ बेहतर होगा तो न्यायिक सक्रियता के जरिये ही होगा. कार्यपालिका और विधायिका को यह बात समझनी होगी और अपने आचरण को सुधारते हुए अपनी सही भूमिका निभानी होगी. अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था से ही लोगों का विश्वास उठ जायेगा.
------देवेन्द्र गौतम
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