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महिला दिवस और महिला उत्थान का अभिप्राय

Written By आशुतोष की कलम on शनिवार, 12 मार्च 2011 | 2:21 pm

पिछला हफ्ता महिला दिवस के नाम रहा...

ढेर सारे ब्लॉग पर महिला शसक्तीकरण के बारें में अनेको लेख लिखे गए..कवितायेँ की गयी..सेमिनार किये गए..
मगर क्या इन सब से कुछ होने वाला है?? क्या महिला को अधिकार व आजादी मिलने वाली है?? क्या एक महिला के तरफ हमारा विचार बदलने वाला है...मेरे समझ से हम महिला दिवस मनाकर ही हम महिलाओ को ये एहसास दिला देतें है की आप दबी कुचली हैं और हम कुछ टुकड़े फेक कर आप को ऊपर उठा रहें है...मुझे याद नहीं कभी पुरुष दिवस मनाया गया हो..
महिला उत्थान या महिला आजादी से क्या अभिप्राय है?? उनका संसद में और नौकरियों में कोटा बना कर उत्थान किया जाए...उनके लिए बस स्टैंड और रेलवे में अलग काउंटर बना दें..मतलब वो सबसे अलग रक्खी जाएँ...
दूसरे शब्दों में हम मान लेते हैं की महिला अपने बल पर न तो टिकट खरीद सकती है न ही चुनाव जीत सकती है...और हम ये भी कहतें है की महिलाएं कुछ भी कर सकती है..चाँद पर जा रही है..डाक्टर बन रही है इत्यादि इत्यादि.ये दोगला चरित्र हम क्यों दिखा रहे है..हर साल महिला दिवस मनाया,२-४ लेख लिखा और हो गया कर्तव्यों की इतिश्री..
मैं एक दो बाते और साझा करना चाहूँगा ये सर्वविदित है की महिला सदियों से दबी कुचली रही है..अधिकार के मामलें में एक लम्बी शुन्यता देखी महिला ने..
मै महिलाओं के पुरे सम्मान के साथ कहना चाहूँगा जिसे पुरुषो के इस समाज में सदियों से अधिकार मिले ही नहीं तो वो इनका इस्तेमाल अचानक मिल जाने पर कैसे कर पाएंगी.. अगर रात को सोते समय हमारा कोई हाथ या पैर दब जाता है तो सुबह उसे सीधा करने में थोडा समय लगता है...
वैसे ही महिलाओं को सम्पूर्ण अधिकार को धनात्मक रूप से इस्तेमाल करने में कुछ समय लगेगा...इसलिए अधिकारों का स्थानांतरण नियंत्रित होना चाहिए... मेरे समझ से ये बेवकूफी भरा महिला दिवस का प्रदर्शन न करने के बजे पूरे साल उन्हें नियंत्रित रूप से धीरे धीरे अधिकारों का स्थानांतरण करे..में बार बार नियंत्रित शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूँ क्युकी अगर पिजड़े में कई साल से बंद चिड़िया को अचानक स्वछंद व्योम में उड़ने का अधिकार दे दें तो वो अपने पंखो को घायल कर किसी बाज या कुत्ते का शिकार हो जाती है...
अभी किसी ब्लॉग पर एक महिला ब्लोगेर नए लिखा था हमें क्या अपने पसंद के कपड़े पहनने का अधिकार नहीं है...मेरे बहन पसंद के कपडे पहनने और नंगा नाचने में अंतर होता है..आज कल की कई महिलाएं भी अपने अधिकार का इस्तेमाल कपड़ों में ही करना चाहती है..वो भी कम से कम पहन कर...मानव की उत्पत्ति काल से पुरुष की दृष्टी में महिला का भूगोल और वक्र ही रहा है...ये एक कटु सत्य है मगर शायद कुछ बुद्धिजीवी न माने भले ही बंद कमरे में FTV देखते मिले..
अब अगर अधिकार की बात कर रहें है तो १ अधिकार के साथ १०० कर्तव्य जुड़े होतें है..महिलाये सदियों से कर्तव्यपरायण रही है तो ज्यादा कहना न होगा की आप के चाल ढाल बात या व्यक्तित्व में अधिकारों के साथ सामाजिक कर्तव्यों का भी समावेश होना चाहिए.
अब इसे समाप्त करते हुए कहना चाहूँगा की अगर आज काल के नेता समाजसेवी या लेखक महिला शसक्तीकरण का उदाहरण लेना चाहें तो रजा राममोहन राय को याद करें जिन्होंने सती प्रथा बंद करा कर महिला का असली उत्थान किया था न की उन्होंने आज की तरह महिलाओं को अर्धनग्न घुमने का अधिकार देने के लिए कोई लेख या कांफ्रेंस की थी.....
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