तुझे रुकना होगा
ऐ खुदा
तेरी सृष्टि
तेरी ही कोप दृष्टी से
हो रही है ध्वस्त
कभी वसुंधरा पर
हरियाली लहलहाने में
मदद करने वाला नील गगन
अनावृष्टि से
या फिर अतिवृष्टि से
नीरव कर देता है जन जीवन को
तो कभी खुद वसुंधरा
अपनी गोद में फैली
खूबसूरत दुनिया को
मिला लेती है मिटटी में
ऐसा क्यों होता है ?
यह पूछने का हक तो नहीं हमें
क्योंकि तेरा हर कृत्य
मानव के हित में होगा
ऐसा विश्वास है सबको
और इसी श्रद्धा के चलते
आशा है जन -जन को
रचयिता
विध्वंसक नहीं हो सकता
मगर सब आशाएं
सब उम्मीदें हों परिपूर्ण
यह भी संभव नहीं
फिर भी
तुझे रुकना होगा
विध्वंस का कारण होने से
क्योंकि
विध्वंस करने वाले तो
काफी हैं
इसी वसुंधरा के सुपुत्र ही
और अगर तू भी
हो गया साथ इनके
तो कौन बचा पाएगा
बर्बादियों के सिलसिले से ?
कौन रोक पाएगा
विनाश के तांडव को ?
* * * * *
----- sahityasurbhi.blogspot.com
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4 टिप्पणियाँ:
मनुष्य के प्रकृति से किये गए कुकर्मो का प्रतिफल
क्योंकि
विध्वंस करने वाले तो
काफी हैं
इसी वसुंधरा के सुपुत्र ही
और अगर तू भी
हो गया साथ इनके
तो कौन बचा पाएगा
बर्बादियों के सिलसिले से ?
कौन रोक पाएगा
विनाश के तांडव को ?
यही सत्य है और उसे अच्छे शब्दो से उकेरा है।
jo huaa wah afsosjanak hai.
इंसान अक्सर प्रकृति, जो की सबकी जननी है, को भूल जाता है....और खुद को प्रकृति का स्वामी समझ मनमानी करता है....
बस यह प्रकृति का नियम है अपनी महत्वता याद कराने और इंसान को उसकी जगह दिखाने के लिए...कभी कभी प्रकृति को भी विराट और विकर रूप लेना ही पड़ता है....
आपने इस दशा को सटीक शब्दों में उकेरा है...
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