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कुंडलिया छंद ----- दिलबाग विर्क

Written By दिलबागसिंह विर्क on मंगलवार, 1 मार्च 2011 | 7:33 pm


हम हिंदू ,तुम मुस्लमान, क्यों सोच है ऐसी
  भाई - भाई  क्यों  नहीं , बने  भारतवासी  .
  बने  भारतवासी , एक - दूसरे के दुश्मन 
  धर्म मिलाता सदा , यहाँ बाँट रहा है मन .
  छोडो संकीर्णता , सबसे बड़ा मानव धर्म 
  कहता ' विर्क ' सबसे , पहले इन्सान हैं हम .

               * * * * *
                ----- sahityasurbhi.blogspot.com
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11 टिप्पणियाँ:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

यह कुण्डलिया छन्द नहीं है!
कम से कम छन्दों को तोड़-मरोड़कर उनका अपमान तो मत कीजिए!

Minakshi Pant ने कहा…

बिलकुल सही कहा आपने |

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

r.mayank ji
kripy yeh to btaen ki yh kundliya chhand kyon nhin hai

meri jankari ke mutabik to ek doha aur ek raula kundliya hota hai . dohe men 13,11 matraen aur raule men 11,13 mataraen hoti hain . dohe ki antim pankti role ki prathm pankti hoti hai . jis shabd se kundliya shuru hota hai usi se kundliya smapt hota hai .
kya in niymon ka nirvah is chhand men nhin hua .

ydi aap dovara yhan aaen to kripa spsht kre ki maine shbdo ka apman kaise kiya hai

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

हम हिन्दू ,तुम मुस्लमान, क्यों सोच है ऐसी
भाई - भाई क्यों नहीं , बने भारतवासी .
बने भारतवासी , एक - दूसरे के दुश्मन
धर्म मिलाता सदा , यहाँ बाँट रहा है मन .
छोडो संकीर्णता , सबसे बड़ा मानव धर्म
कहता ' विर्क ' सबसे , पहले इन्सान हैं हम .
--
कुण्डलिया छन्द में
आपने ही सही परिभाषा दी है
"मेरी तुच्छ जानकारी के मुताबिक एक दोहा ( १३,११ मात्राएँ ) और एक रौला (११,१३ ) एक कुंडलिया का निर्माण करता है . दोहे की अंतिम पंक्ति रौले की प्रथम पंक्ति होती है . जिस शब्द से कुंडलिया शुरू होता है उसी से समाप्त होता है . क्या इन नियमों का निर्वाह मैंने नहीं किया है ? "
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कुण्डलिया छन्द की पहचान होती है कि जिस शब्द या समूह से यह छन्द शुरू होता है अन्त में भी वही शब्द आना अनिवार्य है!
कुण्डलिया इसीलिए इसका नाम रखा गया है!
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कुण्डलिया मात्रिक छंद है। दो दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है।
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आप देखिए और हो सके तो सुधार भी कर लीजिए!
क्या आपकी कुण्डलियानुमा छक्के में अन्त में शुरू का शब्द है!

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

जी हाँ , यह छंद '' हम '' शब्द से शरू हुआ है और '' हम '' से समाप्त

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

महोदय
कक्षा में बच्चों को तुलसीदास का लक्ष्मण मूर्छा प्रसंग पढवाता हूँ
तुलसीदास जैसा विद्वान् कवि तो कोई नहीं लेकिन इसे क्या कहूं समझ नहीं आता , वैसे है ये दोहा --

तब प्रताप उर राखि , प्रभु जैहउं नाथ तुरंत
अस कहि आयसु पाई ,पद बंदी चलेउ हनुमंत

इसमें 12 , 14 , 11 , 14 , मात्राएँ हैं , दोहा चौपाई में लिखे ग्रन्थ में ये कौन सा छंद है

Udan Tashtari ने कहा…

मेरे अल्प ज्ञान से आपकी कुण्डली में दोहा का अन्त दीर्ध से हो रहा है, जो निम्न परिभाषा की कसौटी पर गलत हुआ...साथ ही रोला की अंतिम दो मात्रा...दीर्घ??

किताब से पढ़ी परिभाषा बता रहा हूँ, व्याकरणशास्त्री नहीं हूँ..हो सकता है गलत हूँ तो आपसे वार्तालाप में ज्ञान बढ़े, यही उद्देश्य है:




कुण्डलियाँ

इसके आरंभ मे एक दोहा और उसके बाद इसमें छः चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में चौबीस मात्रायें होती हैं. दोहे का अंतिम चरण ही रोला का पहला चरण होता है तथा इस छ्न्द का पहला और अंतिम शब्द भी एक ही होता है.

उदाहरण-

दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान.
चंचल जल दिन चारिको, ठाऊँ न रहत निदान.
ठाऊँ न रहत निदान, जयत जग में रस लीजै.
मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै.
कह 'गिरधर कविराय' अरे यह सब घट तौलत.
पाहुन निशि दिन चारि, रहत सबही के दौलत.


दोहा

इस छ्न्द के पहले-तीसरे चरण में १३ मात्रायें और दूसरे-चौथे चरण में ११ मात्रायें होती हैं. विषय(पहले तीसरे)चरणों का आरम्भ जगण नहीं होना चाहिये और सम (दूसरे-चौथे) चरणों का अन्त लघु होना चाहिये.

उदाहरण-

मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय.
जा तन की झाँइ परे, स्याम हरित दुति होय. (२४ मात्राएं)


रोला

रोला छंद में २४ मात्रायें होती हैं. ग्यारहवीं और तेरहवीं मात्राओं पर विराम होता है. अन्त में दो गुरु होने चाहिये.

उदाहरण-

'उठो उठो हे वीर, आज तुम निद्रा त्यागो.
१२ १२ २ २१, २१ २१ १२ २२ (२४ मात्रायें)
करो महा संग्राम, नहीं कायर हो भागो.
तुम्हें वरेगी विजय, अरे यह निश्चय जानो.
भारत के दिन लौट, आयेंगे मेरी मानो.



आशा है आप मेरा हस्तक्षेप अन्यथा न लेंगे, मात्र ज्ञानवृद्धि हेतु बात आगे बढ़ाई है.

अनेक शुभकामनाएँ.

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

dnyvad
sudhar hetu pryas kroonga

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

to
udan tashtari ji
महोदय
सादर प्रणाम
आपकी टिप्पणी पढकर ख़ुशी हुई

दोहे में गलती हुई है , मेरे मानना था कि अंत में गुरु-लघु आना सुन्दरता बढ़ाने हेतु है, आवश्यक नही लेकिन आपकी टिप्पणी पढने के बाद पुस्तक " हिंदी छंद अलंकर : एक विवेचन " ---- डॉ. संसार चन्द्र पढ़ी .
आप की बात सही पाई
रौले में हालांकि नियम उतना सख्त नही है . डॉ. संसार चन्द्र के अनुसार अंत में दो गुरु या दो लघु आते हैं . भिखारी दास तो यती के नियम को भी नहीं मानते और इसे 24 मात्राओं तक सीमित रखते हैं यथा

हाय ! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन
जब विषन्न निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन
संग शोध में हो श्रृंगार मरण का शोभन
नग्न शुधातर वास विहीन रहें जीवित जन .
पृष्ट 121

आपके साथ विचार सांझे करके ख़ुशी हुई , मार्गदर्शन करते रहें
उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

कबीर जी का दोहा देखिए
तूं-तूं करता तूं भया , मुझ में रही न हूँ
बारी फेरी बलि गई , जित देखों तित तूं

इस दोहे को देखकर क्या यह नहीं लगता कि अंत में लघु के नियम में मुझ जैसे नए रचनाकार के लिए छूट की संभावना है
आशा है चर्चा जारी रहेगी

Udan Tashtari ने कहा…

एक दूसरे से परस्पर सीखते रहना ही इस विधा की खूबी है दिलबाग भाई...

आपने जो कबीर दास जी के दोहे का उद्धहरण दिया है वह दीर्ध पर न खत्म हो अनुस्वार ’न’ पर खत्म :
होता है:

मुझ में रही न हूँ =मुझ १+१ +में २ +रही १+२ +न १ + हूँ (हून(न-स्वर))२+१ =११ मात्रा


आशा है मैं अपनी बात स्पष्ट कर पाया....

छूट की संभावना तो नये पुराने सभी के साथ रहती है..हा हा!!

शुभकामनाएँ.

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