लंबी जद्दोजहद के बाद आखिरकार भाजपा हाईकमान को भले ही अपने पूर्व के निर्णय को वापस लेना पड़ा हो, मगर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को फिर से विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाने से पार्टी में नई जान आने की पूरी संभावना है। पार्टी के और मजबूत होने से तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यदि विपक्ष मजबूत होगा तो सरकार भी सतर्कता और सावधानी से काम करेगी।
हालांकि भाजपा हाईकमान के लिए यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति ही थी कि उसे तकरीबन एक साल तक विधानसभा में विपक्ष का नेता पद खाली रखने के बाद भी आखिरकार श्रीमती वसुंधरा को ही फिर स्वीकार करना पड़ा। वस्तुत: यह पद खाली था ही इस कारण कि पार्टी में गतिरोध बना हुआ था। संघ लॉबी ने बमुश्किल वसुंधरा राजे को पद से इस्तीफा दिलवाया था, इस कारण उनके दुबारा काबिज होने के लिए कत्तई तैयार ही नहीं था। हाईकमान को उम्मीद थी कि मसले को थोड़ा लंबा खींचा जाएगा तो वसुंधरा राजे समझौतावादी रुख अपना लेंगी। उनका प्रदेश से ध्यान बंटाने के लिए राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया, लेकिन चूंकि वसुंधरा राजे के समर्थक विधायकों में उनके सिवाय किसी पर सहमति बन ही नहीं रही थी, इस कारण हाईकमान को मजबूर होना पड़ा। आखिर में तो स्थिति यहां तक आ गई थी वसुंधरा खुद तो प्रदेश अध्यक्ष बन कर पार्टी पर काबिज होना चाहती थीं और विपक्ष के नेता पद पर अपने ही किसी समर्थक विधायक को बैठाना चाहती थीं। यही वजह रही कि वे आखिरी क्षण तक विधायक दल का नेता बनने को राजी नहीं हो रही थीं। पूर्व प्रधानमंत्री व भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी के विशेष आग्रह पर उन्होंने पद ग्रहण किया। जरा पीछे मुड़ कर देखें तो विधानसभा में विपक्ष का नेता पद खाली होने और वसुंधरा समर्थकों व शहर भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के बीच एक विभाजक रेखा सी खिंच जाने के कारण पार्टी कार्यकर्ता निरुत्साहित सा बैठा था। प्रदेश में पार्टी संगठन की कमान चतुर्वेदी को देने के बाद भी वे श्रीमती वसुंधरा राजे के सामने कमजोर स्थिति में थे। वसुंधरा राजे कितनी प्रभावशाली थीं, इसकी कल्पना इसी से की जा सकता है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु चतुराई व साम-दाम-दंड-भेद से उन्हें जितवा भी दिया। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की कमान है, मगर असली ताकत श्रीमती वसुंधरा के पास है। आम भाजपाइयों में भी वसुंधरा के प्रति स्वीकारोक्ति ज्यादा थी। कुल मिला कर पार्टी का कार्यकर्ता असमंजस में था और प्रदेश में दमदार विपक्ष न होने के कारण कांग्रेस भी लापरवाह हो चली थी। इसका परिणाम ये हुआ कि प्रदेश के विकास में शिथिलता आने लगी थी।
अब जब कि वसुंधरा फिर से अपनी पुरानी भूमिका में आ चुकी हैं, कार्यकर्ताओं में तो उत्साह का संचार हुआ ही है, कांग्रेस भी सकते में आ गई है। चूंकि वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और अशोक गहलोत सरकार कैसा काम कर रही है, इसको भलीभांति समझती हैं कि सरकार को किस प्रकार से घेरना है। कांग्रेस भी जानती है कि वसुंधरा का व्यक्तित्व आकर्षक है और अब अगर सावधानी नहीं बरती गई तो आगामी चुनाव आने तक कांग्रेस का जनाधार खिसक जाएगा। ऐसे में वह खुद-ब-खुद सतर्क हो गई है। अब उसके मंत्री पहले जैसी लापरवाही और ऊलजलूल हरकतें करेंगे तो ज्यादा परेशानी में आएंगे। इस कारण अब उसका जोर भी पूरी तरह से विकास पर होने की उम्मीद की जा रही है। कुल मिला कर प्रदेश भाजपा के ढ़ांचे में इस परिवर्तन को कांग्रेस में भी सुधार होने के साथ सरकार का ध्यान जनहित पर रहेगा। अगर उसने लापरवाही बरती तो वसुंधरा फिर से सत्ता पर काबिज होने को आतुर हैंं।
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