जरा पीछे मुड़ कर देखें तो विधानसभा में विपक्ष का नेता पद खाली होने और वसुंधरा समर्थकों व शहर भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के बीच एक विभाजक रेखा सी खिंच जाने के कारण पार्टी कार्यकर्ता निरुत्साहित सा बैठा था। प्रदेश में पार्टी संगठन की कमान चतुर्वेदी को देने के बाद भी वे श्रीमती वसुंधरा राजे के सामने कमजोर स्थिति में थे। वसुंधरा राजे कितनी प्रभावशाली थीं, इसकी कल्पना इसी से की जा सकता है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु चतुराई व साम-दाम-दंड-भेद से उन्हें जितवा भी दिया। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की कमान है, मगर असली ताकत श्रीमती वसुंधरा के पास है। आम भाजपाइयों में भी वसुंधरा के प्रति स्वीकारोक्ति ज्यादा थी। कुल मिला कर पार्टी का कार्यकर्ता असमंजस में था और प्रदेश में दमदार विपक्ष न होने के कारण कांग्रेस भी लापरवाह हो चली थी। इसका परिणाम ये हुआ कि प्रदेश के विकास में शिथिलता आने लगी थी।
अब जब कि वसुंधरा फिर से अपनी पुरानी भूमिका में आ चुकी हैं, कार्यकर्ताओं में तो उत्साह का संचार हुआ ही है, कांग्रेस भी सकते में आ गई है। चूंकि वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और अशोक गहलोत सरकार कैसा काम कर रही है, इसको भलीभांति समझती हैं कि सरकार को किस प्रकार से घेरना है। कांग्रेस भी जानती है कि वसुंधरा का व्यक्तित्व आकर्षक है और अब अगर सावधानी नहीं बरती गई तो आगामी चुनाव आने तक कांग्रेस का जनाधार खिसक जाएगा। ऐसे में वह खुद-ब-खुद सतर्क हो गई है। अब उसके मंत्री पहले जैसी लापरवाही और ऊलजलूल हरकतें करेंगे तो ज्यादा परेशानी में आएंगे। इस कारण अब उसका जोर भी पूरी तरह से विकास पर होने की उम्मीद की जा रही है। कुल मिला कर प्रदेश भाजपा के ढ़ांचे में इस परिवर्तन को कांग्रेस में भी सुधार होने के साथ सरकार का ध्यान जनहित पर रहेगा। अगर उसने लापरवाही बरती तो वसुंधरा फिर से सत्ता पर काबिज होने को आतुर हैंं।
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