किसी हिम तुंग शिखर के अंचल में
मधुर चांदनी छिटक रही है .
वहीं कहीं वह बलखाती सी
पावन , निर्मल , निष्कलुष , पवित्र
सुरसरी तरुणी विचरण करती है .
नाम है गंगा ....
ब्रह्म पुत्री गंगा .....
श्वेत धवल चीर में लिपटी
अम्बुज की वीणा में उलझी
अंग - अंग में अमिय है जिसके
ना जाने है किस सोच में अटकी -
चेहरे के उतरते चढ़ते भावों में
गहरे दर्द का आभास है
खुद ही खुद से बोल रही है
आह !
कैसी ये नियति है
रूप लावण्य संग दिया ब्रहम ने
कैसा ये सैलाब है ....
इतना वेग -
इतना वेग -
हो जाये जिसमें स्रष्टि ही सारांश
क्या मेरे इस वेग को
पायेगा संभाल कोई
क्या मै भी कभी हो पाऊंगी पूर्ण .
विचारों के इस उथल - पुथल बीच
एक आवाज सुनाई दी -
हे गंगे -
ब्रहम ने तुम्हे बुलाया है
आया है लेने तुम्हे
कोई भागीरथ धरा से
करना है तुम्हे बसुधा को सिक्त
जो सूख रही है बिन नीर के .
भस्म हुए जीवन में भी देना है तुमको जीवन
तभी हो पायेगी मुक्ति संभव उनकी .
पहुंची गंगा ब्रह्म के पास
बोली -
प्रभु ! आपकी आज्ञा सर आँखों पर
परन्तु है एक प्रश्न
भरा है मुझमे इतना वेग
उच्छ्लंख , अद्भुत , प्रलयंकर
डूब ना जायेगा सब कुछ
जब मै जाऊंगी बसुधा पर .
बोले ब्रह्म -
नहीं पुत्री -
इसका भी है उपाय एक
स्रष्टि नियामक , स्रष्टि पालक , स्रष्टि संहारक
नीलकंठ तुम्हारे वेग को
उल्झायेंगें अपने केशों में
तब उतरोगी तुम
एक धरा बन धरणी पर .
सोच रही थी गंगे उस पल
ओह ! शशिशेखर - गौरी पति
क्या मुझे संभालेंगे
क्या होउंगी मै तृप्त कभी
क्या मेरा वेग भी दिशा पा जायेगा .....
चली सुरसरी पाकर ब्रह्म की आज्ञा
कल - कल , हल - हल ,आवाजों के संग
आया था उफन तूफान भयंकर
चारों ओर गंगा ही थी गुन्जायेमान
सुर , नर , मुनि , सभी रहे थे देख
उस विस्मयकारी पल को
आज तो प्रलय है निश्चित
यही सबके चेहरों पर थे भाव
देख गंगे का अद्भुत वेग
भागीरथ भी पड़ गए सोच में
क्या धरा इस वेग को झेल पायेगी
हाहाकार मच जायेगा
हो जायेगा सब कुछ तहस नहस .
चली आ रही थी मदमाती गंगा
नजर आये सामने गिरिजापति
कराल , महाकाल , काल कृपाल
प्रचंड , प्रक्र्ष्ट , नेत्र विशाल
हाथ में डमरू , कंठ भुजंग माला
माथे पर चन्द्र तिलक , नंदी का था साथ
एक मनमोहक मुस्कान लिए
खड़े थे थामने उस वेग को .
नयनों ही नयनों में किया प्रणाम
मन ही मन वह कह रही थीं
हे महादेव -
दे दी है तिलांजली वर्षों के इंतजार को
संभाल सको तो संभाल लो मुझको
अब ना रुक सकुंगी मै ....
तभी पुष्पों की बरसात हुयी
ढोल , म्र्दंग , बाजों की झंकार हुयी
बदल गया था द्रश्य वहां का
गंगा थी अब हर की गंगा
शिव भी थे अब शांत चित्त
बह रही थी अब छोटी धारा
जो थी अडिग कर्तव्य पथ पर
तब बोले भोले भंडारी -
आह !
उस समुद्र मंथन में
जब विष का मैंने पान किया
लोक कल्याण में खुद पर ही आघात किया
एक ज्वाला थी जो बुझती ना थी
हर पल जी को झुलसती थी
हुआ आज मै तृप्त साथ तुम्हारा पाने से
अब तुम हो शक्ति , जीवनदायनी हर की गंगा
दो बराबर मेरे , एक तुम हो
हर - हर गंगे ,
हर - हर गंगे ,
इन्ही शब्दों में है अब जीवन
जाओ गंगे करो कर्तव्यों का तुम निर्वाह
कह इतना भोले हो गए फिर से लीन
चली गंगा धरा पर भागीरथ संग
होकर शांत चित्त कर्तव्य अपने पूरे करने को
हुआ पूर्ण प्रण भागीरथ का
सुरसरी भागीरथी है अब यही अवनि पर
खोजती सी जीवन में जीवन का सत्य
कैसी ये विडंबना है
कैसा है ये मिलन - विछोह
मिलकर भी ना मिल पाए
फिर भी बन गयी एक कथा अमर
हर की गंगा
हर - हर गंगा
हर की गंगा
हर - हर गंगा ..................
प्रियंका राठौर
3 टिप्पणियाँ:
अति सुन्दर....हर हर गन्गे...
dhanyvad gupta ji...
हर हर गंगे।
महाशिवरात्रि की शुभकामनाएं।
एक टिप्पणी भेजें
Thanks for your valuable comment.