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शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग ५-पंचवटी--अन्तिम भाग-चार -- -डा श्याम गुप्त...

Written By shyam gupta on बुधवार, 30 मार्च 2011 | 1:37 pm




   शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
                        
                                 विषय व भाव भूमि
              स्त्री -विमर्श  व नारी उन्नयन के  महत्वपूर्ण युग में आज जहां नारी विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों से कंधा मिलाकर चलती जारही है और समाज के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की  ओर उन्मुख है , वहीं स्त्री उन्मुक्तता व स्वच्छंद आचरण  के कारण समाज में उत्पन्न विक्षोभ व असंस्कारिता के प्रश्न भी सिर उठाने लगे हैं |
             गीता में कहा है कि .."स्त्रीषु दुष्टासु जायते वर्णसंकर ..." वास्तव में नारी का प्रदूषण व गलत राह अपनाना किसी भी समाज के पतन का कारण होता  है |इतिहास गवाह है कि बड़े बड़े युद्ध , बर्बादी,नारी के कारण ही हुए हैं , विभिन्न धर्मों के प्रवाह भी नारी के कारण ही रुके हैं | परन्तु अपनी विशिष्ट क्षमता व संरचना के कारण पुरुष सदैव ही समाज में मुख्य भूमिका में रहता आया है | अतः नारी के आदर्श, प्रतिष्ठा या पतन में पुरुष का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है | जब पुरुष स्वयं  अपने आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक व नैतिक कर्तव्य से च्युत होजाता है तो अन्याय-अनाचार , स्त्री-पुरुष दुराचरण,पुनः अनाचार-अत्याचार का दुष्चक्र चलने लगता है |
                 समय के जो कुछ कुपात्र उदाहरण हैं उनके जीवन-व्यवहार,मानवीय भूलों व कमजोरियों के साथ तत्कालीन समाज की भी जो परिस्थिति वश भूलें हुईं जिनके कारण वे कुपात्र बने , यदि उन विभन्न कारणों व परिस्थितियों का सामाजिक व वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण किया जाय तो वे मानवीय भूलें जिन पर मानव का वश चलता है उनका निराकरण करके बुराई का मार्ग कम व अच्छाई की राह प्रशस्त की जा सकती है | इसी से मानव प्रगति का रास्ता बनता है | यही बिचार बिंदु इस कृति 'शूर्पणखा' के प्रणयन का उद्देश्य है |
                   स्त्री के नैतिक पतन में समाज, देश, राष्ट्र,संस्कृति व समस्त मानवता के पतन की गाथा निहित रहती है | स्त्री के नैतिक पतन में पुरुषों, परिवार,समाज एवं स्वयं स्त्री-पुरुष के नैतिक बल की कमी की क्या क्या भूमिकाएं  होती हैं? कोई क्यों बुरा बन जाता है ? स्वयं स्त्री, पुरुष, समाज, राज्य व धर्म के क्या कर्तव्य हैं ताकि नैतिकता एवं सामाजिक समन्वयता बनी रहे , बुराई कम हो | स्त्री शिक्षा का क्या महत्त्व है? इन्ही सब यक्ष प्रश्नों के विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत करती है यह कृति  "शूर्पणखा" ; जिसकी नायिका   राम कथा के  दो महत्वपूर्ण व निर्णायक पात्रों  व खल नायिकाओं में से एक है , महानायक रावण की भगिनी --शूर्पणखा | अगीत विधा के षटपदी छंदों में निबद्ध यह कृति-वन्दना,विनय व पूर्वा पर शीर्षकों के साथ  ९ सर्गों में रचित है |
             पिछले पोस्ट  सर्ग-५-भाग तीन में..रम लक्ष्मण सीता- पन्च्वटी में जन जागरण अभियान में संलग्न होते हैं। प्रस्तुत  सर्ग-५ पंचवटी अन्तिम भाग में अशान्त मन लक्ष्मण --राम से को दर्शन-अद्यात्म,ईश्वर-जीव, विध्या-अविद्या ,माया ,भक्ति आदि के बारे में ग्यान व उनके वास्तविक अर्थ बताने की जिग्यासा प्रकट करते हैं...और भगवान राम इन अध्यात्म भावों.का वर्णन करते हैं....छंद ४५ से ५८ तक......
४५-
एक बार कर चरण वन्दना , 
लक्ष्मण बोले रघुनन्दन से |
ईश्वर जीव और माया का,
भेद बताएं,  हे   भ्राता  श्री !
ज्ञान,विराग,भक्ति के हे प्रभु!
अर्थ कहें, भ्रम-शोक दूर हो ||
४६-
मैं और मेरा, तू और तेरा,
यह ही तो माया है लक्ष्मण !
जीव इसी के कारण ही तो,
माया -बंधन  में  पड़ता है |
मन की सोच जहां तक जाती,
यह सब ही माया बंधन है ||
४७-
विद्या और अविद्या रूपी,
हैं  दो भेद-रूप  माया के |
संसारी  जन,  तेरा-मेरा,
की आसक्ति-भाव पड़ जाते |
कर दुष्कर्म, भोगते सुख-दुःख,
यही अविद्या है हे लक्ष्मण !
४८-
लक्ष्मण वह  जो ज्ञान भाव है,
मोह और आसक्ति त्याग कर;
व्यक्ति सभी को एक समझता |
सब ही उस ईश्वर की कृति हैं,
सब में स्थित ब्रह्म, जानता;
वही दृष्टि विद्या कहलाती || 
४९-
विद्या के वश सब जग होता ,
किन्तु बिना ईश्वर-इच्छा के;
जीव नहीं पा सकता उसको |
जीव, जो सब विद्या एवं गुण ,
रिद्धि-सिद्धि, सारे जग के सुख;
त्यागे क्षण में, परम-विरागी१ ||
५०-
लक्ष्मण यह मैं भाव अहं तो,
महाज्ञानियों को भी डसता;
सबसे बड़ा अहं साधक का |
धन सम्पति,वैभव व रूप कुल,
सांसारिक यह अहं-भाव तो;
धर्म-बोध से मिट सकता है ||
५१-
ज्ञान -अहं३  किन्तु साधक का,
अध्यात्म-पथ के राही का ;
अपने  सर्वश्रेष्ठ  होने  का,
चाहत , पूजे सब जग उसको ;
सर्प-दंश  के  भाव की तरह,
इसका   कोई  नहीं    उपाय ||
५२-
साधक है जो धर्म राह का,
अध्यात्म  के  पथ का राही;
मैं  और मेरा,  भाव से परे -
रहकर, त्याग भाव अपनाता | 
वही विरागी कहे,  संत को -
भला काम क्या, नाम-धाम से  || 
५३-
जीव स्वयं ही ईश-अंश है,
माया-वश बंधन में पड़ता |
जब विद्या, सत्संग, भक्ति से,
श्रृद्धा , उत्तम ज्ञान-कर्म से;
माया त्याग, मोक्ष पाजाता ,
बिंदु ,सिन्धु में मिल जाता है  ||
५४-
धर्म नीति युत, सत्य कर्म से,
माया से विराग जब होता |
योग ध्यान तप से हे लक्ष्मण,
उत्तम ज्ञान प्राप्त हो पाता |
ज्ञान ,मोक्ष का अनुपम साधन,
विविधि वेद-शास्त्र सम्मतयह ||
५५-
किन्तु ईश की कृपा के बिना,
कहाँ प्राप्त यह ज्ञान किसी को |
ईश्वर जिससे शीघ्र द्रवित हो,
वह है निर्मल भक्ति-भाव ही |
भक्ति, स्वतंत्र भाव है सबसे,
ज्ञानादिक अधीन सब इसके ||
५६-
हों अनुकूल संत, सज्जन,प्रभु, 
भक्ति तभी मिलती है भ्राता |
विद्वानों से भक्ति-प्रीति हो,
शास्त्र विहित निज नीति-कर्म हो;
विषय राग से जब विराग हो,
ईश्वर भक्ति-भाव मन उमंगे ||
 ५७-
ईश्वर के प्रति, दृढ़ श्रृद्धा  हो,
श्रवण आदि, नवधा भक्ति रत ;
संत चरण अनुराग रखे जो,
गुरु पितु मातु बन्धु की सेवा;
में रत,ईश्वर-भक्ति मगन हो,
उसी ह्रदय में ईश्वर बसता || 
५८-
इस कारण ही तो हे लक्ष्मण !
यह भक्ति मुझे अति प्यारी है |
जब भक्त, ईश में लय होता,
ईश्वर  उसके वश  होजाता |
रामानुज   हर्ष-विभोर  हुए,
करते  बार बार   पद-वंदन ||   ---क्रमश:  सर्ग-६...शूर्पणखा ....

[ कुन्जिका-  १=  वैराग्य कोई संसार छोड़ने का ही भाव नहीं है...जनक आदि महा सम्राट , सब सुख-सुविधा , सम्पन्नता वैभव भोग-भोगते हुए भी ..साधू, संत, ज्ञानी, गुरु के आने पर तत्काल सब कुछ त्याग कर उन्हें अपने सिंहासन तक भेंट करदेते है...उन्हें विदेह व परम-विरागी कहते हैं |  महातपस्वी ऋषि-मुनि भी वैवाहिक  सम्बन्ध सुख भोग भोगते हुए भी महात्यागी कहे जाते थे...यह गीता का( भारतीय जीवन-दर्शन का ) निष्काम कर्म का बीज-मूल भाव है |....२- सांसारिक लोगों का  अहं, इच्छा बंधन ---वित्तैषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा( धन सम्पति, पुत्रादि, व प्रसिद्धि एवं  नाम की इच्छा  ) तो सामान्य बात है जो धर्म-ज्ञान जागने पर शांत हो सकती है ... ३= परन्तु ज्ञानी, साधक व विद्वानों में जब ज्ञान का अहं--कि सब हमें पूजें -- घर करता है तो वह उनके स्वयं के साथ  समाज के लिए अत्यधिक्  हानिकारक  होता है क्योंकि ज्ञानी को समझाना अत्यधिक दुष्कर होता है |...४=  जो महान त्यागी विरागी संत होते हैं वही  नाम-इच्छा अर्थात लोकेषणा से परे रह सकते हैं |....५=   यह ईश्वर-माया-जीव का --भारतीय वेदान्त का मूल दर्शन है कि--ब्रह्म( सिन्धु ) स्वयं जीव( बिंदु ) रूप होकर माया में बंधता है  संसार भोगता है और कर्मों -सत्कर्मों के चक्रों द्वारा अंत में मोक्ष पाकर पुनः ईश्वर में विलीन होजाता है --यह भव-चक्र , संसार -चक्र चलता रहता है, इसे ही दुनिया  कहते हैं  |....६= सभी महान व्यक्तित्व, भगवद् जन , ज्ञानीजन, गुणीजन  जो कुछ भी ज्ञान देते  हैं स्वयं अपना ज्ञान /खोज  नहीं कहते( आजकल के अधिकाँश साधू, संत, नेता, ज्ञानियों, वक्ताओं , धर्म वक्ताओं की भाँति ) अपितु अपने ज्ञान को वेद-आदि शास्त्रों से सीखा हुआ ही कहते हैं  ताकि प्रामाणिकता बनी रहे .......राम स्वयं भगवान( वेदादि ज्ञान के मूल)  होते हुए भी यह तथ्य नहीं भूलते कि वे इस समय सामान्य मानव के रूप में कार्यरत हैं .... ]














 

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2 टिप्पणियाँ:

Shikha Kaushik ने कहा…

इस कारण ही तो हे लक्ष्मण !
यह भक्ति मुझे अति प्यारी है |
जब भक्त, ईश में लय होता,
ईश्वर उसके वश होजाता |
रामानुज हर्ष-विभोर हुए,
करते बार बार पद-वंदन
bahut sundar bhavabhivyakti.

Unknown ने कहा…

RAJ KUMARI SUPARNAKHA SANSKRITIK BHARAT KI PEHCHAN SE KYA ALAG THI..? JIN VEDON KE PATHAN PAATHAN SE HI BHARAT KO VISHVA GURUTA MILI THI..!! WOH MAAM & ABHIMAN KATHA KAHAANIYON ME HI KYO KHO GAYA HAI..?

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