इन दिनों प्रख्यात योग गुरू बाबा रामदेव और कांग्रेस के बीच हो रहा टकराव सुर्खियों में है। जाहिर तौर पर योग को पुनस्र्थापित करने वाले बाबा रामदेव के प्रति श्रद्धा की वजह से अधिसंख्य लोग उनकी तरफदारी करते नजर आ रहे हैं, जबकि राजनीतिज्ञों के प्रति कायम अश्रद्धा की भावना के कारण कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को मानसिक रूप से कुछ विक्षिप्त होने की संज्ञा दी जा रही है। मगर इस जद्दोजहद में बाबा रामदेव की भारत स्वाभिमान वाली मूल मुहिम गलत दिशा में जाती दिखाई दे रही है।
असल में जब तक बाबा रामदेव केवल योग व आयुर्वेद की शिक्षा दे रहे थे, तब तक सभी श्रद्धालु अपनी राजनीतिक विचारधारा को घर पर रख कर आ रहे थे। कांग्रेसी हो या भाजपाई, हिंदू के साथ-साथ प्रगतिशील विचारधारा का मुस्लिम भी बाबा के आगे श्रद्धावनत था। इसके बाद जैसे ही बाबा रामदेव ने जब भ्रष्टाचार और विदेशों में जमा काले धन के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी तो वह उनके श्रद्धालुओं को कुछ अटपटी तो लगी, लेकिन चूंकि मुहिम का उद्देश्य पवित्र था और उनके विचारों में एकनिष्ठ देशप्रेम छलक रहा था, इस कारण लोग उन्हें बड़े शौक से सुन रहे थे। उनकी मुहिम राजनीति में व्याप्त अनीति के खिलाफ एक बड़ी जनक्रांति दिखाई दे रही थी। तर्क नीतिगत थे, इस कारण एक साधु के राजनीतिक चर्चा करने को जायज माना जा रहा था। उन्होंने जब राजनीति में शुचिता की खातिर देशभर में रैलियां निकालीं तो लोगों को उनमें जयप्रकाश नारायण के दर्शन होने लगे और ऐसा महसूस किया जाने लगा है कि ऋषि दयानंद सरस्वती के बाद वे एक बड़े समाजोद्धारक के रूप में उभरने लगे हैं। कई दिग्गज बुद्धिजीवियों ने उनका खुल कर समर्थन भी किया, मगर चंद दिन बाद ही ऐसा प्रतीत होने लगा है कि बाबा रामदेव बयानों की दलदल में फंसते नजर आ रहे हैं।
यह सही है कि कांग्रेस को देश पर राज करने का मौका ज्यादा मिला है, उसके नेताओं ने ज्यादा सत्ता सुख भोगा है, इस कारण उनका काला धन विदेशों में अपेक्षाकृत ज्यादा होने की संभावना है। मगर इसका अर्थ ये भी नहीं है कि अकेले कांग्रेस के ही नेता भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार हमारी रग-रग में शामिल हो चुका है। पूरे तंत्र पर छा गया है। इससे कांग्रेस सहित अन्य कोई भी दल अछूता नहीं है। धर्मनिरपेक्षता और हिंदूवाद की विचारधाराओं के कारण कांग्रेस और भाजपा में नीतिगत अंतर तो नजर आता है, मगर राजनीति में भ्रष्टाचार के मामले में दोनों के बीच कोई अंतर रेखा नजर नहीं आती है। प्रारंभ में बाबा रामदेव जब बिना किसी पक्षपात के भ्रष्ट हो चुके तंत्र पर हमला बोल रहे थे और उसे पलटने के लिए अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारने की बात कर रहे थे, तब यही प्रतीत हो रहा था कि न तो वे केवल कांग्रेस के खिलाफ हैं और न ही भाजपा के प्रति उनका विशेष लगाव है। लेकिन जैसे ही उन्होंने सीधे कांग्रेस व गांधी-नेहरू परिवार पर निशाना साधना शुरू किया है, उनके आंदोलन की दिशा ही बदल गई है। अब ऐसा लगने लगा है कि उनकी पूरी मुहिम केवल कांगे्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए है। संघ और भाजपा की ओर से उनके आंदोलन को समर्थन दिए जाने की वजह से कदाचित बाबा के नहीं चाहते भी वे मात्र कांग्रेस विरोधी दिखाई देने लगे हैं। बुद्धिजीवी बाबा रामदेव और संघ व भाजपा के बीच किसी अंतर्गठजोड़ के सूत्र तलाश रहे हैं।
हालत ये हो गई है कि जो बुद्धिजीवी बाबा रामदेव को महान समाज सुधारक कहते हुए नहीं थक रहे थे, उन्हीं में कुछ बाबा रामदेव के ट्रस्टों का पोस्टमार्टम करने को उतारू हैं। लोगों को इस बात को हजम करने में दिक्कत आ रही है कि कल तक जिस स्वामी रामदेव को वे साइकिल पर घूमता देखते थे, वह अब हैलीकाप्टर में घूमता है और उसके पास दुनिया का अत्याधुनिक आश्रम है। अब ये बातें भी की जाने लगी हैं कि उनके साधकों को ज्यादा दिलचस्पी अपने आरोग्य मे हैं, न कि योगी के मुख से आध्यात्मिक बातों के साथ अचानक राजनीति की कड़वी बातें सुनने में। यहां तक कहा जाने लगा है कि शिष्टाचार, श्रद्दा और विश्वास के चलते जुटी भीड़ के समर्थन का गुमान स्वामी रामदेव को होने लगा है, लेकिन इस भीड़ से उन्हें अप्रत्याशित रूप से वोट के रूप में देशभक्त लोग मिल जायेंगे, ऐसी उम्मीद करनी तो बेमानी ही होगी। सवाल ये भी उठाये जा रहे हैं कि जिस आम आदमी की बात स्वामी रामदेव करते हैं, उसके अन्दर इतना मानसिक और सामाजिक साहस नहीं है कि वह पतंजलि योगपीठ की भव्य ओपीडी में एंट्री भी कर पाए। स्वदेशी आंदोलन पर सर्वाधिक मुखर बाबा रामदेव को मिली लगभग एक दर्जन से ज्यादा विदेशी गाडियां आंखों में चुभने लगी हैं। प्रश्न ये भी उठाया जा रहा है कि जिन भ्रष्ट राजनीतिकों पर बाबा हमले पर हमले करते रहे हैं, उन्हीं पर अपनी पकड़ का प्रदर्शन करने के लिए विभिन्न सेवा प्रकल्पों के शिलान्यास समारोहों में मुख्यमंत्रियों को बुलाते रहे हैं। इन बड़े नेताओं में वे चेहरे भी शामिल हैं, जिन पर देश की अदालतों में घोटालों के मुकदमे भी चल रहे हैं।
विवादग्रसत हो चुके बाबा रामदेव को एक बार फिर अपनी मुहिम पर पुनर्विचार करना होगा। आशाभरी निगाहों से बाबा रामदेव को देख रहे करोड़ों भारतीयों की निष्ठा उनमें बनी रहे, इसके लिए जरूरी है कि बाबा बयानबाजी और विवादों से बचें। हालांकि हमारे अन्य आध्यात्मिक व धार्मिक गुरू भी राजनीति में शुचिता पर बोलते रहे हैं। मगर बाबा रामदेव जितने आक्रामक हो उठे हैं और देश के उद्धार के लिए खुल कर राजनीति में आने का आतुर हैं, उसमें उनको कितनी सफलता हासिल होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आंच आती साफ दिखाई दे रही है। यदि समय रहते बाबा रामदेव ने आंदोलन की दिशा पर ध्यान नहीं दिया तो खतरा इस बात का ज्यादा है कि उत्थान और पतन की कहानियों अटे पड़े इस देश में वे भी इतिहास का विषय बन जाएंगे
-ह्लद्गद्भ2ड्डठ्ठद्बद्दञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व
असल में जब तक बाबा रामदेव केवल योग व आयुर्वेद की शिक्षा दे रहे थे, तब तक सभी श्रद्धालु अपनी राजनीतिक विचारधारा को घर पर रख कर आ रहे थे। कांग्रेसी हो या भाजपाई, हिंदू के साथ-साथ प्रगतिशील विचारधारा का मुस्लिम भी बाबा के आगे श्रद्धावनत था। इसके बाद जैसे ही बाबा रामदेव ने जब भ्रष्टाचार और विदेशों में जमा काले धन के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी तो वह उनके श्रद्धालुओं को कुछ अटपटी तो लगी, लेकिन चूंकि मुहिम का उद्देश्य पवित्र था और उनके विचारों में एकनिष्ठ देशप्रेम छलक रहा था, इस कारण लोग उन्हें बड़े शौक से सुन रहे थे। उनकी मुहिम राजनीति में व्याप्त अनीति के खिलाफ एक बड़ी जनक्रांति दिखाई दे रही थी। तर्क नीतिगत थे, इस कारण एक साधु के राजनीतिक चर्चा करने को जायज माना जा रहा था। उन्होंने जब राजनीति में शुचिता की खातिर देशभर में रैलियां निकालीं तो लोगों को उनमें जयप्रकाश नारायण के दर्शन होने लगे और ऐसा महसूस किया जाने लगा है कि ऋषि दयानंद सरस्वती के बाद वे एक बड़े समाजोद्धारक के रूप में उभरने लगे हैं। कई दिग्गज बुद्धिजीवियों ने उनका खुल कर समर्थन भी किया, मगर चंद दिन बाद ही ऐसा प्रतीत होने लगा है कि बाबा रामदेव बयानों की दलदल में फंसते नजर आ रहे हैं।
यह सही है कि कांग्रेस को देश पर राज करने का मौका ज्यादा मिला है, उसके नेताओं ने ज्यादा सत्ता सुख भोगा है, इस कारण उनका काला धन विदेशों में अपेक्षाकृत ज्यादा होने की संभावना है। मगर इसका अर्थ ये भी नहीं है कि अकेले कांग्रेस के ही नेता भ्रष्ट हैं। भ्रष्टाचार हमारी रग-रग में शामिल हो चुका है। पूरे तंत्र पर छा गया है। इससे कांग्रेस सहित अन्य कोई भी दल अछूता नहीं है। धर्मनिरपेक्षता और हिंदूवाद की विचारधाराओं के कारण कांग्रेस और भाजपा में नीतिगत अंतर तो नजर आता है, मगर राजनीति में भ्रष्टाचार के मामले में दोनों के बीच कोई अंतर रेखा नजर नहीं आती है। प्रारंभ में बाबा रामदेव जब बिना किसी पक्षपात के भ्रष्ट हो चुके तंत्र पर हमला बोल रहे थे और उसे पलटने के लिए अपने प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारने की बात कर रहे थे, तब यही प्रतीत हो रहा था कि न तो वे केवल कांग्रेस के खिलाफ हैं और न ही भाजपा के प्रति उनका विशेष लगाव है। लेकिन जैसे ही उन्होंने सीधे कांग्रेस व गांधी-नेहरू परिवार पर निशाना साधना शुरू किया है, उनके आंदोलन की दिशा ही बदल गई है। अब ऐसा लगने लगा है कि उनकी पूरी मुहिम केवल कांगे्रेस को सत्ता से बाहर करने के लिए है। संघ और भाजपा की ओर से उनके आंदोलन को समर्थन दिए जाने की वजह से कदाचित बाबा के नहीं चाहते भी वे मात्र कांग्रेस विरोधी दिखाई देने लगे हैं। बुद्धिजीवी बाबा रामदेव और संघ व भाजपा के बीच किसी अंतर्गठजोड़ के सूत्र तलाश रहे हैं।
हालत ये हो गई है कि जो बुद्धिजीवी बाबा रामदेव को महान समाज सुधारक कहते हुए नहीं थक रहे थे, उन्हीं में कुछ बाबा रामदेव के ट्रस्टों का पोस्टमार्टम करने को उतारू हैं। लोगों को इस बात को हजम करने में दिक्कत आ रही है कि कल तक जिस स्वामी रामदेव को वे साइकिल पर घूमता देखते थे, वह अब हैलीकाप्टर में घूमता है और उसके पास दुनिया का अत्याधुनिक आश्रम है। अब ये बातें भी की जाने लगी हैं कि उनके साधकों को ज्यादा दिलचस्पी अपने आरोग्य मे हैं, न कि योगी के मुख से आध्यात्मिक बातों के साथ अचानक राजनीति की कड़वी बातें सुनने में। यहां तक कहा जाने लगा है कि शिष्टाचार, श्रद्दा और विश्वास के चलते जुटी भीड़ के समर्थन का गुमान स्वामी रामदेव को होने लगा है, लेकिन इस भीड़ से उन्हें अप्रत्याशित रूप से वोट के रूप में देशभक्त लोग मिल जायेंगे, ऐसी उम्मीद करनी तो बेमानी ही होगी। सवाल ये भी उठाये जा रहे हैं कि जिस आम आदमी की बात स्वामी रामदेव करते हैं, उसके अन्दर इतना मानसिक और सामाजिक साहस नहीं है कि वह पतंजलि योगपीठ की भव्य ओपीडी में एंट्री भी कर पाए। स्वदेशी आंदोलन पर सर्वाधिक मुखर बाबा रामदेव को मिली लगभग एक दर्जन से ज्यादा विदेशी गाडियां आंखों में चुभने लगी हैं। प्रश्न ये भी उठाया जा रहा है कि जिन भ्रष्ट राजनीतिकों पर बाबा हमले पर हमले करते रहे हैं, उन्हीं पर अपनी पकड़ का प्रदर्शन करने के लिए विभिन्न सेवा प्रकल्पों के शिलान्यास समारोहों में मुख्यमंत्रियों को बुलाते रहे हैं। इन बड़े नेताओं में वे चेहरे भी शामिल हैं, जिन पर देश की अदालतों में घोटालों के मुकदमे भी चल रहे हैं।
विवादग्रसत हो चुके बाबा रामदेव को एक बार फिर अपनी मुहिम पर पुनर्विचार करना होगा। आशाभरी निगाहों से बाबा रामदेव को देख रहे करोड़ों भारतीयों की निष्ठा उनमें बनी रहे, इसके लिए जरूरी है कि बाबा बयानबाजी और विवादों से बचें। हालांकि हमारे अन्य आध्यात्मिक व धार्मिक गुरू भी राजनीति में शुचिता पर बोलते रहे हैं। मगर बाबा रामदेव जितने आक्रामक हो उठे हैं और देश के उद्धार के लिए खुल कर राजनीति में आने का आतुर हैं, उसमें उनको कितनी सफलता हासिल होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आंच आती साफ दिखाई दे रही है। यदि समय रहते बाबा रामदेव ने आंदोलन की दिशा पर ध्यान नहीं दिया तो खतरा इस बात का ज्यादा है कि उत्थान और पतन की कहानियों अटे पड़े इस देश में वे भी इतिहास का विषय बन जाएंगे
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2 टिप्पणियाँ:
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