शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त --पिछली पोस्ट -- इस सर्ग ६-शूर्पणखा में..वर्णित किया गया कि कैसे शूर्पणखा अपने प्रणय निवेदन के अस्वीकार होने पर अपने वास्तविक स्वरूप में आकर सीताजी पर हमला बोलने को उद्यत हो जाती है--- प्रस्तुत सप्तम सर्ग -संदेश के...पिछले भाग एक में शूर्पणखा की नासिका भंग के पश्चात लक्ष्मण राम से उसके औचित्य पर विचार करते हैं और राम अति-सुखानुपेक्षी सामाज की गिरावट का तार्किक उत्तर देते हैं....आगे प्रस्तुत है भाग दो....छंद १७ से ३० तक...
१७-
१७-
भ्राता यह अति सुख अभिलाषा,
नए नए सुख साधन के हित;
विविध नवीन मार्ग अपनाती |
भौतिक साधन उपकरणों की,
बन जाती है विकास यात्रा ;
मानव, यंत्राश्रित होजाता ||
१८-
सर्दी-गर्मी, धूप, छाँह को,
वायु,प्रकाश व यम-नियमों को;
करने लगता वही नियंत्रित |
और स्वयं के अंतस-कोटर-
में वह स्वयं कैद होजाता ;
अति सुख पाता अहं भाव में ||
१९-
यह ही रावणत्व, रावण का,
है विडम्बना शूर्पणखा की |
जिसके कारण लंकापति को,
अपनी भगिनी के पति को भी;
मृत्यु -दंड देना पड़ता है,
चाहे कारण कूटनीति हो ||
२०-
पली बड़ी वह इस संस्कृति में ,
नहीं रख सकी कोई संयम |
अनाचार, दुष्कर्म, वासना,
के ही वातावरण, पले जो;
कहाँ समझता नियम व संयम,
भोग सदा ही उसको भाता ||
२१-
भोग वासना में फंसकर ही,
मानव दुष्कर्मों में पड़ता |
कर्म-अकर्म को समझ न पाए ,
स्वार्थ लोभ के वश होजाता |
समझाने से समझ न पाता,
उचित दंड आवश्यक है फिर ||
२२-
भौतिकता भी आवश्यक है,
जीवन-जग की सृष्टि तो इसी ;
भौतिक जग व्यापार से होती |
लक्ष्मण! स्थिति,लय व सृष्टि तो,
माया जग से ही नियमित है ;
इसके बिना असंभव जीवन ||
२३-
भौतिक जग व्यवहार के बिना,
अकर्मण्यता, कर्महीनता,
नर को दारुण दुःख दिखलाती |
ज्ञान, विवेक व परमार्थ बिना,
भौतिक जग में ही रत रहना;
भव दुःख-बंधन का कारण है ||
२४-
यह अति तो प्रत्येक भाव की,
रुग्णावस्था ही है लक्ष्मण !
वेद, तभी तो यह कहता है-
ज्ञान व जग के उभय भाव युत,
कर्म करे, मानव तर जाता;
अमृतत्व, वह पा लेता है ||
२५-
'सब हों सुखी' भावना से यदि,
मानव, निज-सुख-भाव करे तो;
सात्विक-भाव वही है भ्राता,
वह ही सच्चा सुख होता है |
द्वंद्व भाव हो,पर-सुख के हित,
तो समाज में समता रहती ||
२६-
अधर्म, अकर्म, छल छंद सभी ,
उस समाज से दूर ही रहते |
नर-नारी, पशु-पक्षी, प्राणी,
समता, स्नेह-भाव अपनाते |
विविध कुमार्ग,कुमति-भाव सब,
अपने आप दूर होजाते ||
२७-
मानव-मन, सुन्दर,सुस्थिर हो,
सत्यं, शिवं भाव अपनाता |
मर्यादा में रहें सभी जन,
वेद-विहित हों सभी आचरण |
लक्ष्मण इस देवत्व भाव से,
दैत्य-भाव है सदा हारता ||
२८-
नारी, केंद्र-बिंदु है भ्राता !
व्यष्टि,समष्टि,राष्ट्र की,जग की |
इसीलिये तो वह अवध्य है ,
और सदा सम्माननीय भी |
लेकिन वह भी तो मानव है,
नियम-निषेध मानने होंगे ||
२९-
नारी के निषेध-नियमन ही,
पावनता के संचारण की;
उचित निरंतरता समाज में,
सदा बनाए रखते, लक्ष्मण !
अवमानना, रेख-उल्लंघन,
कारण बनते, दुराचरण का ||
३०-
राजा जनता या प्रबुद्ध जन,
जब अपने दायित्व भूलकर;
उचित दंड यदि नहीं देते |
अनाचार को प्रश्रय देकर,
पाप-कर्म में भागी बनते;
नियम से नहीं ऊपर कोई ||
2 टिप्पणियाँ:
भोग वासना में फंसकर ही,
मानव दुष्कर्मों में पड़ता |
कर्म-अकर्म को समझ न पाए ,
स्वार्थ लोभ के वश होजाता |
समझाने से समझ न पाता,
उचित दंड आवश्यक है फिर |
bahut sateek panktiyan hain ye .badhai sarthak lekhan hetu .
यह ही रावणत्व, रावण का,
है विडम्बना शूर्पणखा की |
जिसके कारण लंकापति को,
अपनी भगिनी के पति को भी;
मृत्यु -दंड देना पड़ता है,
चाहे कारण कूटनीति हो |
ek aisee prastuti jo man ko dikhati hai sach ka aaina.
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Thanks for your valuable comment.