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बरगद

Written By Atul Shrivastava on शनिवार, 30 अप्रैल 2011 | 2:19 am


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सेकंड,
मिनट,
घंटा,
दिन,
महीना,
और साल.....।
न जाने
कितने कैलेंडर
बदल गए
पर मेरे आंगन का
बरगद का पेड
वैसा ही खडा है
अपनी शाखाओं
और टहनियों के साथ
इस बीच
वक्‍त बदला
इंसान बदले
इंसानों की फितरत बदली
लेकिन
नहीं बदला  तो
वह बरगद का पेड....।
आज भी
लोगों को 
दे रहा है
ठंडी छांव
सुकून भरी हवाएं.....
कभी कभी
मैं सोचता हूं
काश इंसान भी न बदलते
लेकिन
फिर अचानक
हवा का एक  झोंका आता है
कल्‍पना से परे
हकीकत से सामना होता है
और आईने में
खुद के अक्‍श को देखकर
मैं शर्मिंदा हो जाता हूं

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3 टिप्पणियाँ:

तरुण भारतीय ने कहा…

सोचने को मजबूर कर दिया |................सार्थक पोस्ट

shyam gupta ने कहा…

बहुत शानदार व सार्थक रचना....

---सन्स्क्रिति, शास्त्र, बडे-बूढे....एसे ही बरगद के पेड होते हैं....

नीलांश ने कहा…

acchi rachna hai..

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