--पिछली पोस्ट -- इस सर्ग के द्वितीय भाग में शूर्पणखा द्वारा अपने रूप सौन्दर्य की स्वयं प्रशंसा व राम -लक्ष्मण को देख कर उसकी मनोदशा का वर्णन किया गया था| ---प्रस्तुत तृतीय व सर्ग के अंतिम भाग में शूर्पणखा राम व लक्ष्मण से प्रणय निवेदन करती है ----छंद ३२ से ४५ तक....
३२-
सब विधि सुन्दर रूपसि बनकर ,
काम बाण दग्धा, शूर्पणखा ;
पहुँच गयी फिर पंचवटी में |
चर्चारत थे राम व लक्ष्मण,
भरकर नयनों में आकर्षण ;
प्रणय निवेदन किया राम से ||
३३-
नव षोडसि सी इठलाकर के,
मुस्काती तिरछी चितवन से ;
बोली रघुवर से -शूर्पणखा |
सुन्दर पुरुष नहीं तुम जैसा,
मेरे जैसी सुन्दर नारी;
नहीं जगत में है कोइ भी ||
३४-
रही ढूंढती सारे जग में,
नहीं मिला तुम जैसा कोई ;
इसीलिये अब तक कुमारि हूँ |
तुम को देखा मन हरषाया,
विधि ने यह संयोग बनाया;
रचें स्वयंवर अब हम दोनों ||
३५-
मैं मुग्ध होगई हूँ तुम पर,
मेरा मानस है मचल रहा;
तुम पूर्ण करो इच्छा मेरी |
सब सुख साधन वैभव होगा,
जीवन का अनुपम रस भोगो;
क्यों कष्ट वनों के सहते हो ||
३६-
सिय को इंगित कर प्रभु बोले-
अति ही अनुचित है यह भद्रे !
मैं इनका पति हूँ हे सुभगे !
जैसी तुम अब तक कुमारि हो,
वैसे ही कुमार लघु भ्राता १ ;
तुम प्रणय निवेदन वहां करो ||
३७-
इस प्रेम भरी सरिता का प्रिय,
यह प्रणय निवेदन स्वीकारो |
लक्ष्मण समीप जाके बोली-
तुम मुझको अंगीकार करो |
लक्ष्मण बोले-सुकुमारि सुनो,
मैं तो सेवक हूँ रघुवर का ||
३८-
मेरे जैसे सेवक से क्या,
हे सुमुखि! तुम्हें मिल पायेगा |
मैं तो रघुवर के सम्मुख हूँ ,
बस एक भिखारी द्वार खड़ा |
तुम जैसी सुन्दर सर्वगुणी,
नारी के उपयुक्त राम हैं ||
३९-
कौशलपति हैं श्री राम प्रभु ,
सक्षम, समर्थ सब करने में;
तुम प्रणय निवेदन वहीं करो |
जब पुनः राम के निकट गयी,
बोले, जाओ हे नारि ! वहीं ;
क्रोधित हो बोली , शूर्पणखा ||
४०-
नारी की प्रणय याचना को,
क्या पुरुष कहीं ठुकराते हैं २ |
नारी का प्रेम न स्वीकारे,
यह तो प्रेम की अवज्ञा है |
प्रणयी नारी की काम-तृषा,
हरना ही धर्म है पुरुषों का ||
४१-
शठ ! अर्पण करने को मैं तो,
यह मादक यौवन लाई थी |
सोचा था काम-कला कोविद,
तुम अज्ञानी रसहीन मिले |
कमनीय मनोहर श्यामल छवि,
से मेरा मन भरमाया था ||
४२-
पर विष की श्यामलता है यह,
जो भरा हुआ है नस नस में |
समझा जिसको मधु-पुष्प-कुञ्ज,
निर्गंध३ जंगली कुसुम मिला |
शूर्पणखा को ठुकराने का,
तो दंड भोगना ही होगा ||
४३-
लक्ष्मण बोले, हे निशाचरी !
तुम नीति धर्म को क्या जानो
लज्जा ही नारी का गुण है,
निर्लज्ज नारि तुम क्या जानो |
निर्लज्ज कुकर्मी नीच पुरुष,
ही तो, तुमको वर सकता है ||
४४-
मैं भगिनी वीर दशानन की ,
अपमानित करके मानव तुम ;
जीवित कैसे रह पाओगे |
जिस नारी के कारण मुझको,
स्वीकारते नहीं , उसको ही-
लो मैं समाप्त कर देती हूँ ||
४५-
क्रोधित होने पर मुखड़े की,
सारी सज्जा ही बिगड़ गयी |
धुल गयी रूप सज्जा सारी,
जो कृत्रिमता४ से संवारी थी |
असली परिचय पा निशिचरि का,
भयभीत होगयीं थी सीता || -----क्रमश : सर्ग-७ ..सन्देश -----
कुंजिका -- १= प्रायः यह कहा जाता है क़ि राम ने झूठ बोला , लक्ष्मण तो विवाहित थे | परन्तु ' शठे शाठ्यं समाचरेत ' राम ने कहा जैसी तुम कुमारी हो वैसे ही वे भी कुमार हैं | शूर्पणखा स्वयम विधवा थी कुमारी नहीं , राम यह तथ्य व उसके मायावी रूप को जानते थे , इसी के साथ ही लक्ष्मण ने धैर्यवान व द्रिडव्रती होने की एक और परिक्षा उत्तीर्ण की | राम उसको भ्रमित व क्रोधित करके असली रूप देखना चाहते थे और लंकापति को युद्ध का सन्देश भेजने के लिए किसी उपयुक्त कारण की उत्पत्ति ... २= सामान्य जनों के व्यवहार में --उस काल में नारी स्वतंत्र व स्वच्छंद थी और पुरुष के लिए प्रणय की इच्छुक नारी की इच्छा को ठुकराना उचित नहीं माना जाता था | नारी किसी से भी पुत्र प्राप्ति की इच्छा कर सकती थी | यद्यपि यह प्रचलन श्रेष्ठता व उत्कृष्टता का मानक नहीं माना जाता था |.... ३= गंध हीन ... ४= बनावटी श्रृंगार -सज्जा , मेक-अप |
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