ये संसार नश्वर हैं
मर्त्य है सब
इस मर्त्य लोक में
फिर भी इस कडवे सच को
दफ़न कर हम भूल जाते हैं
खुद को अमर बनाने में
जुटे रहते हैं -दम घुटने तक
चींटियों सा ढोते- बिल- में
'घर' भरते रहते हैं -दिन -रात
और एक हलकी
बारिस भी अपनी ताकत
दिखा जाती है -तूफान बन जाती है
अपना जमा-जमाया
बहा ले जाती है पल में
भरने की इस होड़ में
जोड़ तोड़ के मोड़ पे
कृत्य को कुकृत्य
अपने को पराया
कर्म को दुष्कर्म
हंस को
कौआ
बना डालते हैं
नोचने लगते हैं बोटी
जहाँ भी मिले -सडा गला
मन को भाने लगता है
'अपना'- 'प्रिय' हो जाता है
और हम ऊँचाई पर उड़ते
गिद्ध से ताकते कुछ
अकेले हो -कुछ साथी
की तलाश में -भीड़ से जुदा
बस उड़ते ही रहते हैं
न ओर न छोर !!
अपनी प्यारी धरा छूट जाती है
खोखला बोझिल मन लिए
कभी खोह कभी - जंगल छुप कहीं
सो जाते हैं और होते सुबह
फिर नोचने -घर भरने लगते हैं
काश हम यहीं -यहाँ बसते
पैरों तले जमीं होती
मनुहारी छाँव -शीतल
एक धारा में बहते
साथ साथ रहते
एक सुर में गाते
'अमरत्व' के लिए -
अपना 'किया'-'धरा' -छोड़ जाते
अमर होने के लिए बस
पार्क -चौराहों पर
अपनी मूर्ति ना लगवाते !!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
२३.४.२०११ जल पी.बी
5 टिप्पणियाँ:
अच्छी रचना के लिए बधाई |
आशा
अच्छे विचार हैं---अच्छी रचना...
---हम मर्त्य नहीं हैं,हमारा शरीर मर्त्य है,वह भी माटी का चोला माटी में की तर्ज़ पर सिर्फ़ रूप बदलता है...हम आत्मा हैं और अनश्वर हैं;
--पर सन्सार भी नश्वर नहीं है...पदार्थ अनश्वर है, बस उसका रूप बदलता है....
---इस विश्व में कुछ भी नाशवान नहीं है...बस सब कुछ व्यक्त-अव्यक्त का परिणामी भाव है ...क्योंकि प्रत्येक कण जब ईश्वर की रचना व रूप है तो वह नाशवान कैसे हो सकता है...
आदरणीय आशा जी नमस्कार -ये रचना जो संसार को नश्वर दिखाती हुयी लोगों को आगाह कर रही है की भविष्य के लिए जमा करते घर भरते हुए अपनी असलियत को बदल न डालें वही करें जितना जायज हो -आपको प्यारी लगी
धन्यवाद
आदरणीय डॉ श्याम जी नमस्कार -बहुत सुन्दर और दार्शनिक विचार आप के हमें ये स्वीकार्य है -लेकिन रचना किस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए और क्या आह्वान करती हुयी लिखी गयी है उस पर भी कृपया धयान दें या शायद आप ने ध्यान दिया होगा अगर उन लोगों को आप का गीता का ये उपदेश दें तो शायद बात ही नहीं बने -जो मै कहना करना चाह रहा हूँ इस घडी में क्या वो सन्देश उन पर कुछ काम करेगा शायद नहीं ..
और एक बात अगर सब नश्वर नहीं है तो क्यों आज सारी दुनिया चिल्लाती जा रही है पानी बचाओ , बिजली बचाओ , ये करो वो करो ,लोग घर छोड़ भाग रहे हैं प्यासे मर रहे है बहुत सी बाते हैं जिन्हें कभी बाद में
धन्यवाद आप का
सही भ्रमर जी-धन्यवाद..-परन्तु..नश्वर की बजाय ’मर्त्य’ कहने से आपके काव्य-रचना-भाव के उद्देश्य की पूर्ति होती है...नश्वर कहने की, पुनराव्रत्ति की आवश्यकता ही नहीं--अपितु काव्य-कलानुसार पुनराव्रत्ति दोष है...
---शरीर नाशवान है..यही हर जगह कहा गया है...संसार को कहीं नहीं कहा गया है...आपके काव्य-भाव का उद्देश्य भी ”शरीर’ से पूरा होता है...
----पानी- की कमी का अर्थ उसका नष्ट होजाना नहीं...पानी का अन्य रूप में परिवर्तिति होजाना है/अपने तत्वों में टूटना है/ जल-चक्र का अनियमित होजाना है...पानी तो मूलतः/ सामा्न्यतः भूमन्डल में सदा जितना है उतना ही रहता है..
---पदार्थ की अनश्वरता सिर्फ़ गीता का वाक्य नहीं है पूर्णरूपेण वैग्यानिक सिद्धान्त है...एसी सभी बातों का एक यही उत्तर है..
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