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शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग ८-संकेत -भाग दो-- -डा श्याम गुप्त...

Written By shyam gupta on शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011 | 4:29 pm

    
शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त
         
        पिछली पोस्ट - अष्ठम सर्ग..संकेत....के प्रथम भाग --में शूर्पणखा खर-दूषण से अपनी व्यथा कहती है और वे  तुरंत अपराधी को दंड देने के लिए से सहित चल पड़ते हैं , प्रस्तुत है आगे ,.सर्ग ८ का अंतिम भाग दो --- छंद  १४ से २५ तक...
१४-
रघुबर बोले, सौमित्र सुनो,
भीषण निशिचर सेना आती |
सजग रहो सीता को लेकर,
पर्वत गुहा वास में जाओ |
राक्षस संकुल का वध करके,
मुक्त करूँ अब जन-स्थान को ||  
१५-
 निशिचर सेना ने घेर लिया,
चहुँ ओर से आकर रघुपति को |
शोभायमान हो  रहे 'राम,
धनु-बाण चढ़ाए तेजपुंज;
जैसे  मृग-झुंडों  में  कोई,
सिंह-शावक हो विचरण करता ||
१६-
देखी राघव की रूप छटा,
सब सेना ठगी ठगी सी थी |
आश्चर्य चकित थे खर-दूषण,
बोले, यह सुन्दर बालक है|
तीनों लोकों में कभी नहीं ,
ऐसी  सुन्दरता  देखी  है ||
१७-
यद्यपि भगिनी को कुरूप कर,
यह   दंडनीय  अपराधी  है |
फिर भी अति सुन्दर नर-वालक,
मन से वध के अनुरूप नहीं |
भेजो सन्देश  तुरत  मेरा,
उत्तर आकर के बतलाओ ||
१८-
स्त्री को सौंप के दैत्यों को,
अभी क्षेत्र से करें पलायन;
तो ही जीवित बच सकते हैं |
सन्देश सुना जब रघुबर ने,
हंसकर बोले, हे दूत ! सुनो-
कहना जाकर निज नायक से ||
१९-
हम क्षत्री हैं , वन में मृगया-
करना ही  खेल  हमारा है |
तुम जैसे दुष्ट मृग-दलों को,
हम सदा  खोजते  रहते हैं |
चाहे काल स्वयं सम्मुख हो,
नहीं  युद्ध से  डरते हैं  हम ||
२०-
भयभीत युद्ध से यदि हो तो,
लौट घरों को जा सकते हो |
नहीं कभी मैं वध करता हूँ ,
समर-विरत यदि रिपु होजाए |
रिपु से दया, कपट चतुराई ,
हैं  भयभीत ही  सदा करते ||
२१-
क्रोधित होकर खर-दूषण ने,
सेना को  आदेश  देदिया |
जीवित सबको लेकर आओ,
स्वयं करेंगे हम बध उनका |
विविध भाँति के अस्त्र-शस्त्र ले,
दौड़े  निशिचर  भरे  क्रोध में ||
२२-
राघव की  धनु-टंकार सुनी- 
सारी सेना दिग्भ्रमित हुयी |
रिपु समझें  एक-दूसरे को,
आपस में लड़कर नष्ट हुयी |
चहुँ और से वनवासी,वनचर,
तीरों  की  वर्षा  करते  थे ||
२३-
खर-दूषण-त्रिशिरा सहित सभी,
नायकों को,  दस -दस वाणों से;
यमलोक   राम ने  पहुंचाया |
देवों ने  अति हर्षित   होकर,
सुमन-वृष्टि की रघुनन्दन पर ;
रिपु दल नष्ट हुआ था सारा ||
२४-
राक्षस संकुल के विनाश  पर,
 जन-आशा   का  संचार हुआ|
लक्ष्मण भी सिय सहित आगये ,
कर  चरण वन्दना  हर्षित  थे |
रघुवर छवि निरखि निरखि सीता,
मन ही मन  आनंदित  होतीं  ||
२५-
निशिचर सेना के विनाश से,
आतंकित होकर  शूर्पणखा ;
लंका की और  चली जाती |
संकट है  आसन्न  देश पर,
सूचना  दशानन  को  देने;
बदला  लेने  को  उकसाने ||    ---क्रमश:  नवम  व अंतिम सर्ग --परिणति ...




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