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आओ आज चलें उस दुनिया
खारे सागर में डूबे हम
गोता लायें मोती ढूंढें
ताज में अपने -सिंहासन में
अपने जड़ के
इस उफान में
हहर- हहर कर उठी तरंगे
चली बदलने दुनिया को जो
स्वागत उनका
आओ हाथ मिला कर -कर लें
बड़ी पुनीत है आत्मा उसकी
आओ करें समर्पण हम अब
गोदी उसकी इस अथाह में
भुला के सब कुछ
चैन से फिर सो जाएँ
तभी कल्पना मूर्त हमारी
शांति -लहर -ये रहे झुलाती
थपकी देकर
ऊपर नीचे
तन्हाई की गहराई में
जहाँ स्याह अँधियारा पलता
चाँद दिखाती
उजियारा कुछ
धवल चांदनी
दिल में अपने भर लायें
सपनों के इक राज महल में
कोई दीप जला जाये
उजियारा कर कोई प्रेयसी
जूही चंपा बेला जैसी
खुश्बू देती
अन्तरंग महका जाये
जल तरंग की-परियां जल की
व्यथा वेदना हर जाएँ
आओ खुद को करें सुवासित
अंतर अपना पुष्प सरीखा
धवल -चांदनी वेद ज्ञान से
आज आत्मा को हम अपनी
अमृत तुल्य बना डालें
हो गंगा सी -जिसमे आकर
खारा सागर -तर जाये
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
८.४.२०११ जल पी बी
2 टिप्पणियाँ:
अच्छे भाव हैं...बधाई
आदरणीय श्याम जी नमस्कार धन्यवाद आप को इसमें निहित गूढ़ भाव अच्छे लगे आओ हम आह्वान करें की सब शुभ में शामिल हों अपना योगदान दे एक मंजिल की ओर चलें
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Thanks for your valuable comment.