केन्द्र सरकार गरीब परिवारों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना चला रही है ,जिसके अंतर्गत प्रत्येक परिवार को सरकार की ओर से चिन्हांकित किसी भी शासकीय या निजी अस्पताल में एक वर्ष में तीस हजार रूपए तक इलाज कराने की सुविधा मिल रही है .इसके लिए प्रत्येक परिवार को स्मार्ट कार्ड दिया जा रहा है. छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह की सरकार पिछले करीब ढाई साल से मुख्यमंत्री बाल ह्रदय योजना का संचालन कर रही है ह्रदय रोग से पीड़ित गरीब बच्चों के निःशुल्क ऑपरेशन इस योजना के तहत शासन द्वारा मान्यता प्राप्त अस्पतालों में किए जा रहे हैं . अब तक लगभग सत्रह सौ बच्चों को इस योजना के ज़रिये नया जीवन मिला है. इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्र और राज्य की ये दोनों योजनाएं संकटग्रस्त गरीब परिवारों के लिए उनके गर्दिश के दिनों में सहारा बन कर खड़ी हो रही हैं . इन योजनाओं से लोकतंत्र में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा भी प्रमाणित होती है . कई डाक्टर और अस्पताल इन योजनाओं में जनता को काफी संजीदगी से अपनी सेवाएं दे रहे हैं.
दूसरी तरफ कई ऐसे भी डाक्टर और अस्पताल हैं, जो यह साबित करने पर तुले हुए हैं कि कलियुग में रुपया ही सबसे बड़ा भगवान हो गया है. रूपए हों, तो रोटी ,कपड़ा और मकान आसानी से आ जाते हैं, लेकिन इस पूंजी-प्रधान युग में उनकी यह सोच बन गयी है कि रुपयों से इंसान तो क्या , इंसानियत को भी खरीदा जा सकता है. वैसे तो सार्वजनिक-जीवन में मानव का प्रत्येक कार्य उसके निजी -जीवन के साथ-साथ समाज के लिए भी उपयोगी होता है , ऐसे प्रत्येक कार्य से देश और समाज की भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सेवा भी होती रहती है .चाहे वह हो,या कोई व्यापार-व्यवसाय या फिर सरकारी या निजी-क्षेत्र की नौकरी . प्रत्येक कार्य का समाज के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष महत्व ज़रूर होता है. अपने कार्य में अगर मानवीय संवेदनशीलता न हो ,तो वह सम्पूर्ण समाज के लिए घातक साबित होता है. हमारे आस-पास आज लगभग हर तरफ ऐसा ही नजारा है और हम सब उसे देखने और झेलने के लिए मजबूर हैं.
डाक्टर को हम अपने जीवन का रक्षक मानते हैं और उसके पास कभी अपने ,तो कभी अपने परिवार के किसी बीमार सदस्य के इलाज के लिए जाते हैं, यह सोच कर कि संकट में पड़े प्राणों को बचाकर वह हम जैसे इंसानों को नया जीवन देगा .ईश्वर के बाद अगर कोई इस मृत्युलोक में इंसान को नयी जिंदगी देने वाला है , तो उसे डाक्टर कहा जाता है. लेकिन अधिकाँश अस्पतालों का व्यावसायिक रूखा वातावरण हमें पहले ही तनाव में डाल देता है, और कुछ डाक्टरों की छवि ऐसे सौदागर के रूप में नज़र आने लगती है ,जो रूपयों के लिए ज़िंदा इंसान तो क्या , मुर्दों का और उनके कफ़न का भी सौदा करने लगते हैं .डाक्टर भी एक मानव है ,लेकिन कई ऐसे भी डाक्टर हैं , जिनके आचरण देख कर दुसरे मानवों का उस पर से भरोसा टूट जाता है. रूपयों के पीछे भागने वाले ऐसे डाक्टरों को देव-दूत नहीं ,बल्कि यम-दूत कहना ज्यादा उचित होगा .
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक निजी अस्पताल में भी चिकित्सा जैसे पवित्र व्यवसाय को कलंकित करने वाली ऐसी ही एक शर्मनाक घटना की खबर स्थानीय दैनिक 'हरि-भूमि ' में पढ़ने को मिली . खबर के अनुसार इस निजी अस्पताल में मौत की कगार पर पहुँच चुके एक मरीज के मात्र पन्द्रह मिनट के इलाज का बिल बनाया गया तेरह हजार ५०० रूपए .यह राशि उसके परिवार से वसूल भी कर ली गयी . डाक्टर ने अखबार को बेशर्म लहजे में यह चौंकाने वाला बयान भी दे दिया कि हमें मरीज के जीने मरने से कोई मतलब नहीं .हमने इलाज के लिए अस्पताल के स्टाफ और मशीनों का जो इस्तेमाल किया , उसका शुल्क तो मरीज के परिवार को भुगतान करना ही होगा .
यह देख कर आश्चर्य हुआ कि सभ्य कहे जाने वाले समाज में डाक्टर के इस बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई कि उसे मरीज के जीने-मरने से कोई मतलब नहीं , एक डाक्टर के रूप में उसका यह बयान वास्तव में निंदनीय है. आज कहाँ खो गयी डाक्टरों की सेवा भावना , जिसकी शपथ उन्हें डाक्टरी की डिग्री लेने के बाद चिकित्सक के रूप में पंजीयन कराते समय लेनी पड़ती है. मानवता को शर्मसार कर देने वाली इस घटना की खबर सुलभ संदर्भ के लिए मैं यहाँ 'हरि -भूमि ' से साभार जस का तस दे रहा हूँ . ऐसे धन-पिशाच डॉक्टरों को पैसा खाने की लत बीमारी बन कर लग चुकी है. जिन्हें उनका इलाज करना है,वे तो करने से रहे . अब आप ही इसे पढ़ कर अपना फैसला दें - ऐसे धन-पिशाच डॉक्टरों का इलाज आखिर कौन करेगा ? . - स्वराज्य करुण
दूसरी तरफ कई ऐसे भी डाक्टर और अस्पताल हैं, जो यह साबित करने पर तुले हुए हैं कि कलियुग में रुपया ही सबसे बड़ा भगवान हो गया है. रूपए हों, तो रोटी ,कपड़ा और मकान आसानी से आ जाते हैं, लेकिन इस पूंजी-प्रधान युग में उनकी यह सोच बन गयी है कि रुपयों से इंसान तो क्या , इंसानियत को भी खरीदा जा सकता है. वैसे तो सार्वजनिक-जीवन में मानव का प्रत्येक कार्य उसके निजी -जीवन के साथ-साथ समाज के लिए भी उपयोगी होता है , ऐसे प्रत्येक कार्य से देश और समाज की भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सेवा भी होती रहती है .चाहे वह हो,या कोई व्यापार-व्यवसाय या फिर सरकारी या निजी-क्षेत्र की नौकरी . प्रत्येक कार्य का समाज के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष महत्व ज़रूर होता है. अपने कार्य में अगर मानवीय संवेदनशीलता न हो ,तो वह सम्पूर्ण समाज के लिए घातक साबित होता है. हमारे आस-पास आज लगभग हर तरफ ऐसा ही नजारा है और हम सब उसे देखने और झेलने के लिए मजबूर हैं.
डाक्टर को हम अपने जीवन का रक्षक मानते हैं और उसके पास कभी अपने ,तो कभी अपने परिवार के किसी बीमार सदस्य के इलाज के लिए जाते हैं, यह सोच कर कि संकट में पड़े प्राणों को बचाकर वह हम जैसे इंसानों को नया जीवन देगा .ईश्वर के बाद अगर कोई इस मृत्युलोक में इंसान को नयी जिंदगी देने वाला है , तो उसे डाक्टर कहा जाता है. लेकिन अधिकाँश अस्पतालों का व्यावसायिक रूखा वातावरण हमें पहले ही तनाव में डाल देता है, और कुछ डाक्टरों की छवि ऐसे सौदागर के रूप में नज़र आने लगती है ,जो रूपयों के लिए ज़िंदा इंसान तो क्या , मुर्दों का और उनके कफ़न का भी सौदा करने लगते हैं .डाक्टर भी एक मानव है ,लेकिन कई ऐसे भी डाक्टर हैं , जिनके आचरण देख कर दुसरे मानवों का उस पर से भरोसा टूट जाता है. रूपयों के पीछे भागने वाले ऐसे डाक्टरों को देव-दूत नहीं ,बल्कि यम-दूत कहना ज्यादा उचित होगा .
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक निजी अस्पताल में भी चिकित्सा जैसे पवित्र व्यवसाय को कलंकित करने वाली ऐसी ही एक शर्मनाक घटना की खबर स्थानीय दैनिक 'हरि-भूमि ' में पढ़ने को मिली . खबर के अनुसार इस निजी अस्पताल में मौत की कगार पर पहुँच चुके एक मरीज के मात्र पन्द्रह मिनट के इलाज का बिल बनाया गया तेरह हजार ५०० रूपए .यह राशि उसके परिवार से वसूल भी कर ली गयी . डाक्टर ने अखबार को बेशर्म लहजे में यह चौंकाने वाला बयान भी दे दिया कि हमें मरीज के जीने मरने से कोई मतलब नहीं .हमने इलाज के लिए अस्पताल के स्टाफ और मशीनों का जो इस्तेमाल किया , उसका शुल्क तो मरीज के परिवार को भुगतान करना ही होगा .
यह देख कर आश्चर्य हुआ कि सभ्य कहे जाने वाले समाज में डाक्टर के इस बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई कि उसे मरीज के जीने-मरने से कोई मतलब नहीं , एक डाक्टर के रूप में उसका यह बयान वास्तव में निंदनीय है. आज कहाँ खो गयी डाक्टरों की सेवा भावना , जिसकी शपथ उन्हें डाक्टरी की डिग्री लेने के बाद चिकित्सक के रूप में पंजीयन कराते समय लेनी पड़ती है. मानवता को शर्मसार कर देने वाली इस घटना की खबर सुलभ संदर्भ के लिए मैं यहाँ 'हरि -भूमि ' से साभार जस का तस दे रहा हूँ . ऐसे धन-पिशाच डॉक्टरों को पैसा खाने की लत बीमारी बन कर लग चुकी है. जिन्हें उनका इलाज करना है,वे तो करने से रहे . अब आप ही इसे पढ़ कर अपना फैसला दें - ऐसे धन-पिशाच डॉक्टरों का इलाज आखिर कौन करेगा ? . - स्वराज्य करुण
5 टिप्पणियाँ:
इस पूंजी-प्रधान युग में उनकी यह सोच बन गयी है कि रुपयों से इंसान तो क्या , इंसानियत को भी खरीदा जा सकता है-
bilkul sahi kaha hai aapne .vicharniy post .aabhar .
इस पूंजी -प्रधान युग में जब सभी की यह सोच है तो सिर्फ़ डाक्टर कैसे पीछे रह सकते है व क्यों रहें..????
शिखा जी और डॉ. श्याम गुप्ता जी को टिप्पणियों के लिए धन्यवाद ,लेकिन डॉ.श्याम गुप्ता जी से जानना चाहता हूँ कि उनकी यह प्रतिक्रिया एक संवेदनशील कवि और साहित्यकार के रूप में है , या फिर एक व्यावसायिक डॉक्टर के रूप में ?
ये डा चोर है
मेरा सभी भाई बहिनो एँव माताओ को नमस्ते
मै ऐसे डाक्टरो को डाक्टर नही बल्कि महाशैतान कहुगाँ।क्योकी ये डाक्टर अपने जमीर से इतने नीचे गिर गऐ है कि भगवान को इनको बुलाने के लिए
नाली के कीड़े भेजेगा जो इनके शरीरो का माँस खाएगेँ,
ये गरीब व मजलूमो का खून चूसते है,कीड़े इनका खून चूसेगेँ ,मै इन डाक्टरो की भरपूर निन्दा करता हुँ। मै ऐसे डाक्टरो को डाक्टर नही बल्कि महाशैतान कहुगाँ।क्योकी ये डाक्टर अपने जमीर से इतने नीचे गिर गऐ है कि भगवान को इनको बुलाने के लिए
नाली के कीड़े भेजेगा जो इनके शरीरो का माँस खाएगेँ,
ये गरीब व मजलूमो का खून चूसते है,कीड़े इनका खून चूसेगेँ ,मै इन डाक्टरो की भरपूर निन्दा करता हुँ।
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