फैला दो आग ऐसे की जले जंगल ये चुप्पी का ,
जी भर गया है मुर्दों की दुनियाँ में रह-रह कर ,
फरकता है नहीं तुम्हारा लहू,शायद ये पानी है ,
इन्सां जानवर हो जाता है जुल्म सह-सह कर,
बस वाही आग है जो बार -बार कवित लिखने और आग लगाने के लिये कहती है ,
दुष्यंत ने कहा था ,
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने सही ,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए ,
लेकिन मैं कह रहा हूँ की ,
मेरे सीन में भी सही ,और तेरे सीने में सही ,
है अगर दिल में आग ,तो वो आग दिखनी चाहिए ,
एक महान क्रन्तिकारी कवि, जिसने दिल मैं जलती हुई आग को आवाज़ दी ,
मैं महान कवि निराला की बात कर रहा हूँ ,
ये कविता मैं उस महान दमित प्रेमी को समर्पित कर रहा हूँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
आप जरूर पढ़ें और अपने विचारों से मुझे अवगत करायें ,,,,,,,,,,,,,,आपका --अनंत
http://anantsabha.blogspot.com/
1 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति और आवाहन -बधाई हो
इन मुर्दों की बस्ती में
चिल्लाते चिल्लाते कान फटे
आँखें मीचे सब यूं निकलें
ज्यों कुम्भकर्ण से सोये थे
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
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