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मैं कविता तब ही लिखता हूँ

Written By Anurag Anant on सोमवार, 11 अप्रैल 2011 | 11:41 am

फैला दो आग ऐसे की जले जंगल ये चुप्पी  का ,
जी भर गया है मुर्दों की दुनियाँ में रह-रह कर ,
फरकता है नहीं तुम्हारा लहू,शायद ये  पानी है ,
इन्सां जानवर हो जाता है  जुल्म सह-सह कर,


बस वाही आग है जो बार -बार कवित लिखने और आग लगाने के लिये कहती है ,
दुष्यंत ने कहा था ,
मेरे  सीने में नहीं तो तेरे सीने सही ,
हो कहीं  भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए ,
लेकिन मैं कह रहा हूँ की ,
मेरे सीन में भी सही ,और तेरे सीने में सही ,
है अगर दिल में आग  ,तो वो आग दिखनी चाहिए ,
एक महान क्रन्तिकारी कवि, जिसने दिल मैं जलती हुई आग को आवाज़ दी ,
मैं महान  कवि  निराला की बात कर रहा हूँ ,
ये कविता मैं उस महान दमित प्रेमी को समर्पित कर रहा हूँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
आप जरूर पढ़ें और अपने विचारों से मुझे अवगत करायें ,,,,,,,,,,,,,,आपका --अनंत
http://anantsabha.blogspot.com/


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1 टिप्पणियाँ:

Surendra shukla" Bhramar"5 ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति और आवाहन -बधाई हो

इन मुर्दों की बस्ती में
चिल्लाते चिल्लाते कान फटे
आँखें मीचे सब यूं निकलें
ज्यों कुम्भकर्ण से सोये थे

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५

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