ये हमारी मजबूरी है,
सोचने व समझने में
दूरी है .... -२
तभी तो.. ,
हमारी वास्तविक
" जीवन - गीता "
अभी तक अधूरी है .
ये हमारी ....................
सोच तो हम लेते हैं
कि ..
समाज में
परिवर्तन लायेंगें ,
इन फैली हुई
कुरीतियों और बुराइयों को
दूर भगायेंगे .
लेकिन ........
जब हम
समझ लेतें हैं
कि ...
इससे हम अपने ही
निजी लाभों व
स्वार्थों को
क्षति पहुंचाएंगे ,
तो हम ....
त्याग देते हैं
परिवर्तन के विचार को ,
और .......
फिर से
रम जाते हैं
स्वर्ग समझ कर
अपने इसी
नश्वर संसार को... .
अपने इसी नश्वर संसार को.
1 टिप्पणियाँ:
khoobsuat kavita..
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