शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त
--- प्रस्तुत सप्तम सर्ग -संदेश के...पिछले भाग दो में राम, लक्ष्मण से अति-भौतिकता की हानियां , भौतिक-व्यवहार की आवश्यकता , नारी आचरण व निषेध नियमन पर वार्ता करते हैं ...आगे प्रस्तुत है अंतिम भाग तीन ...छंद ३१ से ४५ तक ...
३१-
नारी ही तो हे प्रिय भ्राता !
जननी होती नर-नारी की ।
प्रथम गुरु है वह सन्तति की,
सन्स्कार के पुष्प खिलाती ।
विष की हो या सुगंध-गुण युत,
यह वल्लरी फैलती जाती ||
३२-
शिक्षित और सुसंस्कृत नारी,
मर्यादा युत आचरण तथा;
शुचि कर्त्तव्य भाव अपनाती |
संस्कारमय नीति-निपुणता,
वर्त्तमान एवं नव पीढी -
में , मर्यादा भाव जगाती ||
३३-
विविध कारणों से यदि नारी,
मर्यादा उल्लंघन करती |
दुष्ट भाव, स्वच्छंद आचरण,
से समाज दूषित होजाता |
कई पीढ़ियों तक फिर लक्ष्मण,
यह दुष्चक्र चलता रहता है ||
३४-
जब उद्दंड, रूप-ज्वाला युत,
और दुर्दम्य काम-पिपासा-
युक्त ताड़का१ से कौशिक का ;
तेज, तपस्या-बल गलता था ,
अत्याचार, अनीति मिटाने;
उसका भी बध किया गया था ||
३५-
शूर्पणखा का दंड हे अनुज !
सिर्फ व्यक्ति को दंड नहीं है |
चारित्रिक धर्मोपदेश है,
नारी व सम्पूर्ण राष्ट्र को |
चेतावनि है दुष्ट जनों को ,
कुकर्म-रत नारी-पुरुषों को ||
३६-
संदेशा है युद्ध-घोष का ,
अत्याचारी राक्षस कुल को |
राज्यधर्म औ क्षात्रधर्म ही ,
हे सौमित्र ! निभाया तुमने |
लेने पड़ते हैं कटु निर्णय,
व्यापक राष्ट्र, समाज, धर्म हित ||
३७-
लक्षमण बोले, क्षमा करें प्रभु -
अज्ञानी हूँ, भ्रमित भाव हूँ |
क्या माँ कैकयी का आचरण,
नारि-धर्म विपरीत नहीं था ?
महाराज दशरथ का निर्णय,
क्या विषय-आसक्ति प्रेरित था ||
३८-
पितृ जनों की क्षमताओं पर,
शंका करना उचित नहीं है |
यदि यह नहीं हुआ होता तो,
हमको यह सौभाग्य न मिलता |
ज्ञानी मुनियों के दर्शन का,
निशिचर-हीन मही करने का ||
३९-
शायद हम इतिहास में , अनुज !
दशरथ -सुत होकर खोजाते |
लेकिन अब इतिहास युगों तक,
गायेगा, सौमित्र गुणाकर -
और राम-सीता की गाथा ;
पुरखों का आशीष है सभी ||
४०-
देवासुर -संग्राम विजेता२ -
नायक चक्रवर्ति दशरथ से,
इसी भूल अपेक्षित है क्या;
अकारण अन्याय कर्म की |
और सर्व-प्रिय विदुषी नारी ,
कैकयि एसा कर सकती है ?
४१-
तीनों माताएं ,प्रिय भ्राता,
भक्ति, ज्ञान, वैराग्य भाव हैं |
विदुषी कैकयी , ज्ञान भाव हैं ,
राजनीति औ नीति-कुशल भी |
देवासुर संग्राम विजय में,
वही सहायक३ थीं दशरथ की ||
४२-
परम प्रिया राजा दशरथ की,
राज्यकर्म और राजनीति पर;
उचित मंत्रणा देने वाली |
देव कार्य, इस महायज्ञ में,
वही आहुती दे सकती थी ;
अपने प्रेम,त्याग, महिमा की ||
४३-
विश्वामित्र-वशिष्ठ योजना४ ,
निशिचर-हीन मही करने की ;
कैकयि माँ ही केंद्र बिंदु है |
शिव की भाँती, गरल पी डाला,
सहमत कब थे राजा दशरथ ||
४४-
सेना से यह कार्य न होता५ ,
कोइ अन्य उपाय कहाँ था |
राक्षस-अपसंस्कृति विनाश का ,
ध्वजा धर्म की फहराने का |
जन जन हित में,विज्ञ जनों को,
सदा गरल यह पीना होगा ||
४५-
अति शोकाकुल थे रामानुज,
माता-पिता और गुरुजन प्रति;
अपनी भूल और शंका पर |
पश्चाताप अश्रु बहते थे ,
चरण पकड़ बोले रघुवर से-
'तात ! आज मन शांत होगया |' ---क्रमश: सर्ग-८-संकेत .....
कुंजिका -- १= ताड़का ( रामायण के पात्र मारीचि व सुबाहु की माँ )-राक्षसी( व उसका कुल- राक्षस समाज) , अपने रूप सौन्दर्य से विश्वामित्र ( कौशिक) मुनि को वश में करने हेतु पीछे पडी रहती थी और विविध भांति से उन्हें( व उनके ऋषि-शिष्य समाज -तंत्र व आश्रम को ), उनकी यज्ञ, तपस्या , वेदादि कर्म को अवरोधित करके तंग करती रहती थी, एवं विविध अनाचारों में लिप्त थी | विश्वामित्र का राम-लक्ष्मण को दशरथ से मांग कर अपने आश्रम लेजाने का उद्देश्य उनके अत्याचारों से अपने क्षेत्र को मुक्त करना था , जो राम ने ताड़का का वध करके किया |....२ व ३ = इंद्र के संग्रामों में असुरों के विरुद्ध, पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट महा शक्तिशाली राजा दशरथ सदैव सहायक होते थे | पटरानी कैकयी भी युद्ध में साथ जाया करती थी | एक बार दशरथ के रथ के पहिये की धुरी निकलजाने पर तुरंत अपनी तीव्र बुद्धि का उपयोग करके कैकयी ने अपनी उंगली लगा कर गिराने से बचाया था |..४= वास्तव में राम वन गमन की एक सोची समझी राजनैतिक योजना थी इसमें विश्वामित्र,वशिष्ठ , कैकयी व राम शामिल थे , दशरथ को भी सारी बात विस्तार से ज्ञात नहीं थी अतः वे पूर्ण सहमत नहीं थे | ...५= सेना से यह दुष्कर कार्य नहीं होसकता था क्योंकि रास्ते में पड़ने वाले प्रदेश अपने पर कौशल का हस्तक्षेप समझ कर सहयोग की बजाय पग पग पर विरोध होता और राक्षस सेना सतर्क होजाती |
2 टिप्पणियाँ:
पितृ जनों की क्षमताओं पर,
शंका करना उचित नहीं है |
यदि यह नहीं हुआ होता तो,
हमको यह सौभाग्य न मिलता
डॉ श्याम गुप्त जी नमस्कार क्या नए अंदाज नयी शैली में आप ने पेश किया ये महाकाव्य बहुत सुन्दर चल रहा है ऊपर का सन्देश बहुत ही अच्छा है बधाई हो
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
धन्यवाद भ्रमर जी...
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Thanks for your valuable comment.