हे नारी तू पंगु बने ना
"कर' मजबूत तू अपनी लाठी
जभी जरुरत तभी उठा ले
कच्चा घड़ा है अभी बना ले
नरम है मिटटी मन का मोड़े
गढ़ दे सुन्दर रूप !!
सोच सुनहरी सपने पहले
मन में अपने खूब !
कलश बनाये मंदिर होगा
मूरति शोभित वहीँ कहीं
फूल बनाये मन मोहेगा
खुश कर सब को चले कहीं
प्याला 'वो' जो कहीं बनाये
मदिरालय में पड़े कहीं
कांटा जो बन गया कहीं तो
चुभे शूल सा जहाँ कहीं
दर्द व्यथा कुछ रक्त आह बस
गीत -न दिखती -हंसी कहीं
तू पारंगत नहीं अगर है
इस जुग की मूरति गढ़ने में
गढ़ दे कुछ भोली सी सूरति
मुस्काती हंसती सी मूरति
बाग-बगीचा वृन्दावन
प्यार बरसता जहाँ धरा पर
रास रचे -कान्हा -गोपी या
'लाल'- बहादुर -गाँधी से- रच दे
अमर शहीदों के कुछ रूप
गढ़ दे माँ बैठी तू धूप
अभी जलेगी तो पायेगी छाँव कभी
तेरे सपने इन मूरति में
जो भर पाए
जान जो आये
यही सहारा -तेरी "लाठी"
"कल' को ये -तू- भूल न जाये
हे माँ तू ममता की मूरति
इसके अन्दर ममता भर दे
समता भर दे
प्यारा-न्यारा राग सभी !!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
२३.४.२०११ जल पी.बी.
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