हे ‘माँ’ तू है कितनी ‘भोली’-‘दर्द’ हुआ तो चुप के ‘रो’ ली
हे ‘माँ’ !! मुझको क्षमा करे तू
मुझको गुस्सा तुझ पर आता !
कुछ भी यहाँ बनाती जाती
अर्थ -हीन है -रस -विहीन जो
आग भरी है जिनके दिल में
‘होली’ उन्हें जलाना आता
रंग जिन्हें ‘काला’ ही भाता
जो जाने न ‘हीरा’- ‘मोती’
‘कौआ’ -‘कोयला’ बस मन भाता
‘धवल ‘–‘चांदनी’-‘श्वेत’-‘ दिवस’ ना
‘अँधियारा’-‘रजनी’- ही भाता
तोड़ फोड़ कर ‘पुष्पों’ को वे
‘राह’ में फेंके जाते
रोज एक ‘फुलवारी’ नोचे
सभा में ‘नाच’- ‘नचाते’
‘चीर’-‘हरण’ कर घूमे जाता
नहीं ‘कृष्ण’ अब- ‘कंस’ कहे -है
हँस -हँस घूमे
‘छुरा’ घोंप के ‘सीने’ में
वो अपनी ‘माँ’ के
‘बाप’ के अपने
‘बदनाम’ करे है
‘मानवता’ को लूटे
चोर-सिपाही तंत्री मंत्री
‘घर’ –‘आँगन’ से ‘संसद’ तक
जो खड़ा हुआ है ‘रक्षक’-‘भक्षक’
‘माँ’ तूने उसे बनाया
‘पाल’ –‘पोष’ कर 'आँचल' अपने
तूने ‘दूध’ पिलाया
‘गढ़ने’ में क्या ‘भूल’ हुयी माँ
कहाँ –कभी- क्या तुमने सोचा??
वो 'त्रिशूल' क्यों आज 'शूल' है
याद करो कुछ ‘बचपन’ के दिन
‘आग’ लगाया था उसने ‘घर’
बढ़ी नदी में कूदा
गुडिया तोड़ ‘फेंक’ देता वो
कभी जलाता ‘होली’
बिन- मौसम के बरस वो जाता
थाली देता फेंक
उनकी जेब थी खाली होती
नौकर पर लगती थी चोरी
‘लात’ मारता था जब तुझको
‘दर्द’ तुम्हे था होता ??
कहती थी ‘अनजान’ तू उसको
बड़ा ‘भरम’ ये होता
‘कान’ पकड़ ना उसे सिखाया
तूने तो बस ‘चाँद’ दिखाया
‘लोरी’ गा-गा उसे सुलाया
हे ‘माँ’ तू है कितनी भोली !!
‘पुचकारे’ - ‘गोदी’ में भर के
"दर्द' हुआ तो चुप के –‘रो’ ली !!
मै हूँ तेरा ‘लाल’ वही माँ
लौट नहीं अब पाऊँ !!
गुस्सा तुझ पर मुझको आता
अब ना कुछ कर पाऊँ
‘काटे’ से ‘कदली’ फले
कैसे मै समझाऊँ !!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
८.४.२०११
2 टिप्पणियाँ:
"दर्द' हुआ तो चुप के –‘रो’ ली !!
bhawbhini...behad sundar.
आदरणीय मृदुला जी नमस्कार आप की प्यारी प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत धन्यवाद माँ की ममता होती ही ऐसी है जो मन को छू लेती है यही तो हमें जागरूक रहना है की वह विगाड़ न दे हमारे दुलार ही दुलार से धन्यवाद
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
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Thanks for your valuable comment.