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लघुकथा ----- दिलबाग विर्क

Written By डॉ. दिलबागसिंह विर्क on शनिवार, 2 अप्रैल 2011 | 3:31 pm


              जानवर                      
अनजान गली में से गुजरते समय एक कुत्ते को बैठे देखकर हमारे कदम ठिठके .थोडा संभलकर पास से निकलने की सोची .जानवर है , क्या भरोसा कब टांग पकड़ ले . हम दोनों ने यही सोचा .
" आदमी भी तो एक जानवर है , सभ्य जानवर ."-मैंने अपने दोस्त से कहा .
" हाँ , जानवर तो है ,लेकिन सभ्य नहीं , बल्कि सभ्य होने के बाबजूद भी .'- मेरे मित्र ने दार्शनिक अंदाज़ से कहा .
" वो कैसे ?"-मैंने हैरानी से पूछा .
" आदमी सभ्य है ,इसमें कोई शक नहीं , लेकिन वह जानवर भी है . जानवर की तरह वह कभी भी हमला कर सकता है आपके सामान पर , आपकी जान पर व आपकी इज्जत पर ... तभी तो घर से बाहर आकर हम अनजान आदमियों से ऐसे ही सचेत रहते हैं जैसे हम अभी इस कुत्ते के पास से गुजरते समय थे ."-उसने बात स्पष्ट की .
               उसकी बात पर जब मैंने गौर किया तो समाचार पत्रों ,टी.वी.चैनलों पर दिखाए जाने वाले दुष्कर्म ,लूट-मार भरे समाचार मेरी आँखों के सामने घूम गए . मुझे भी यकीन आ गया उसकी बात पर .वास्तव में आदमी जानवर ही तो है ,सभ्य होने के बाबजूद भी .

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