राजा महेन्द्र प्रताप एक सच्चे देशभक्त, क्रान्तिकारी, पत्रकार और समाज सुधारक थे ।उनका जन्म 1 दिसम्बर 1886 को मुरसान ( अलीगढ के पास, उत्तरप्रदेश मेँ) के राजा घनश्याम सिँह के घर मेँ हुआ । हाथरस के राजा हरनारायण सिँह ने कोई संतान न होने पर उन्हेँ गोद ले लिया । इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोडकर हाथरस राज्य के राजा बने । जिँद ( हरियाणा ) की राजकुमारी से उनका विवाह हुआ ।
राजा महेन्द्रप्रताप आर्यन पेशवा थे । उन्होँने अपनी आर्य परम्परा का निर्वाह करते हुए 32 वर्ष देश देश से बाहर रहकर, अंग्रेज सरकार को न केवल तरह - तरह से ललकारा बल्कि अफगानिस्तान मेँ बनाई अपनी आजाद हिन्द फौज द्वारा कबाइली इलाकोँ पर हमला करके कई इलाके अंग्रेजोँ से छिनकर अपने अधिकार मेँ ले लिये थे और ब्रिटिस सरकार को क्रान्तिकारियोँ की शक्ति का अहसास करा दिया था ।
1906 मेँ जिँद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता मेँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन मेँ भाग लिया और स्वदेशी का प्रचार करने लगे । उनका दृष्टिकोण विस्तृत था । वह ब्रह्मण - भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष मेँ नहीँ थे । वह जाति, पंथ, वर्ग, रंग आदि भेदोँ को मानवता के विरुद्ध घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे । उन्होँने संस्कारित शिक्षा के लिए वृन्दावन मेँ प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की थी । जो क्रान्तिकारियोँ की शरणस्थली बना ।
राजा महेन्द्रप्रताप लाला हरदयाल और चंपक रमन पिल्लई जैसे राष्ट्रवादी नेताओँ से निरन्तर संपर्क बनाये हुये थे और उनके द्वारा भेजे जाने वाले हथियारोँ को भारत मेँ क्रान्तिकारियोँ मेँ न केवल बाटते थे बल्कि उन्हेँ धन भी उपलब्ध कराते थे । इन गतिविधियोँ के चलते वे अंग्रेज जासूसोँ की नजरोँ मेँ चढ चुके थे और यहाँ रहते हुए कोई बडा काम करना, अब उनके लिए संभव नहीँ रह गया था । अतः वे जितनी संपत्ति यहां से ले जा सकते थे, लेकर चुपचाप बिना पासपोर्ट के जर्मनी चले गये ।वहां उन्हेँ बर्लिन समिति का सदस्य बनाया गया । उसके बाद उन्होँने जर्मनी के शासक कैसर से मुलाकात की । कैसर ने उन्हेँ आजादी की लडाई मेँ हर संभव सहायता देने का वचन दिया । वहां से तुर्की होकर अफगानिस्तान पहुँचे । अफगानिस्तान के अमीर से मुलाकात की और उनसे अफगानिस्तान मेँ अस्थाई आजाद हिन्द सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा । जिसे विचार - विर्मश के पश्चात स्वीकृति प्रदान कर दी गई । अंततः 29 अक्तूबर 1915 को अस्थाई "आजाद हिन्द सरकार" अस्तित्व मेँ आ गई । इस अस्थाई सरकार के राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप, प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ, गृहमंत्री मौलाना ओबेदुल्ला सिँधी और विदेशमंत्री डा. चंपक रमन पिल्लई को बनाया गया । इसी सरकार के अंतर्गत "आजाद हिन्द फौज" का गठन भी किया गया जिसमेँ सीमावर्ती पठानोँ और कबीलाईयोँ को लेकर छह हजार सैनिक भर्ती किये गये ।
आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजी अधिकार वाले भारतीय क्षेत्रोँ को आजाद कराने के लिये अंग्रेज सेना पर हमला बोल दिया जिसे अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्ला खाँ की दोगली नीतियोँ के कारण विफलता का सामना करना पडा । तब राजा महेन्द्र प्रताप रुस चले गये और लेनिन से मिले । परन्तु लेनिन ने कोई विशेष सहायता नहीँ की । 1920 से 1946 तक देश की आजादी के लिए विदेशोँ मेँ भ्रमण करते रहेँ ।
राजा महेन्द्र प्रताप एशियाई देशोँ को मिलाकर "आर्यान" की स्थापना के लिए जुट गये और वही तरफ महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस भी "एशियन यूथ एसोसिएशन" की स्थापना कर कुछ ऐसा ही करने की दिशा मेँ बढ रहे थे । यह भी एक संयोग था कि राजा महेन्द्र प्रताप ने 29 अक्तूबर 1915 को अफगानिस्तान मेँ जो बीज बोया था, उसे 28 वर्ष बाद 4 जुलाई 1943 को रासबिहारी बोस ने जापान मेँ विराट रुप से विकसित करके उनके अधूरे सपने को न केवल पूरा कर दिया था बल्कि पूर्ण आजादी का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उसे राष्ट्रपितामह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के हाथोँ सौप दिया था ।
राजा महेन्द्र प्रताप को मातृभूमि के स्पर्श करने का सौभाग्य 1946 मेँ मिला, वह भारत वापस लौटे । सरदार पटेल की बहिन मणीबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अडडे गई । वे सांसद भी रहे । वे स्वतंत्र भारत मेँ जीवन पर्यँत मानवता का प्रचार करते रहेँ । राजनीतिक कारणोँ से भारतीय इतिहास ने उन्हेँ वह स्थान नहीँ दिया जिसके वह अधिकारी थे ।
- विश्वजीतसिँह
राजा महेन्द्रप्रताप आर्यन पेशवा थे । उन्होँने अपनी आर्य परम्परा का निर्वाह करते हुए 32 वर्ष देश देश से बाहर रहकर, अंग्रेज सरकार को न केवल तरह - तरह से ललकारा बल्कि अफगानिस्तान मेँ बनाई अपनी आजाद हिन्द फौज द्वारा कबाइली इलाकोँ पर हमला करके कई इलाके अंग्रेजोँ से छिनकर अपने अधिकार मेँ ले लिये थे और ब्रिटिस सरकार को क्रान्तिकारियोँ की शक्ति का अहसास करा दिया था ।
1906 मेँ जिँद के महाराजा की इच्छा के विरुद्ध राजा महेन्द्र प्रताप ने कलकत्ता मेँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन मेँ भाग लिया और स्वदेशी का प्रचार करने लगे । उनका दृष्टिकोण विस्तृत था । वह ब्रह्मण - भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष मेँ नहीँ थे । वह जाति, पंथ, वर्ग, रंग आदि भेदोँ को मानवता के विरुद्ध घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे । उन्होँने संस्कारित शिक्षा के लिए वृन्दावन मेँ प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की थी । जो क्रान्तिकारियोँ की शरणस्थली बना ।
राजा महेन्द्रप्रताप लाला हरदयाल और चंपक रमन पिल्लई जैसे राष्ट्रवादी नेताओँ से निरन्तर संपर्क बनाये हुये थे और उनके द्वारा भेजे जाने वाले हथियारोँ को भारत मेँ क्रान्तिकारियोँ मेँ न केवल बाटते थे बल्कि उन्हेँ धन भी उपलब्ध कराते थे । इन गतिविधियोँ के चलते वे अंग्रेज जासूसोँ की नजरोँ मेँ चढ चुके थे और यहाँ रहते हुए कोई बडा काम करना, अब उनके लिए संभव नहीँ रह गया था । अतः वे जितनी संपत्ति यहां से ले जा सकते थे, लेकर चुपचाप बिना पासपोर्ट के जर्मनी चले गये ।वहां उन्हेँ बर्लिन समिति का सदस्य बनाया गया । उसके बाद उन्होँने जर्मनी के शासक कैसर से मुलाकात की । कैसर ने उन्हेँ आजादी की लडाई मेँ हर संभव सहायता देने का वचन दिया । वहां से तुर्की होकर अफगानिस्तान पहुँचे । अफगानिस्तान के अमीर से मुलाकात की और उनसे अफगानिस्तान मेँ अस्थाई आजाद हिन्द सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा । जिसे विचार - विर्मश के पश्चात स्वीकृति प्रदान कर दी गई । अंततः 29 अक्तूबर 1915 को अस्थाई "आजाद हिन्द सरकार" अस्तित्व मेँ आ गई । इस अस्थाई सरकार के राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप, प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ, गृहमंत्री मौलाना ओबेदुल्ला सिँधी और विदेशमंत्री डा. चंपक रमन पिल्लई को बनाया गया । इसी सरकार के अंतर्गत "आजाद हिन्द फौज" का गठन भी किया गया जिसमेँ सीमावर्ती पठानोँ और कबीलाईयोँ को लेकर छह हजार सैनिक भर्ती किये गये ।
आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजी अधिकार वाले भारतीय क्षेत्रोँ को आजाद कराने के लिये अंग्रेज सेना पर हमला बोल दिया जिसे अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्ला खाँ की दोगली नीतियोँ के कारण विफलता का सामना करना पडा । तब राजा महेन्द्र प्रताप रुस चले गये और लेनिन से मिले । परन्तु लेनिन ने कोई विशेष सहायता नहीँ की । 1920 से 1946 तक देश की आजादी के लिए विदेशोँ मेँ भ्रमण करते रहेँ ।
राजा महेन्द्र प्रताप एशियाई देशोँ को मिलाकर "आर्यान" की स्थापना के लिए जुट गये और वही तरफ महान क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस भी "एशियन यूथ एसोसिएशन" की स्थापना कर कुछ ऐसा ही करने की दिशा मेँ बढ रहे थे । यह भी एक संयोग था कि राजा महेन्द्र प्रताप ने 29 अक्तूबर 1915 को अफगानिस्तान मेँ जो बीज बोया था, उसे 28 वर्ष बाद 4 जुलाई 1943 को रासबिहारी बोस ने जापान मेँ विराट रुप से विकसित करके उनके अधूरे सपने को न केवल पूरा कर दिया था बल्कि पूर्ण आजादी का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उसे राष्ट्रपितामह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के हाथोँ सौप दिया था ।
राजा महेन्द्र प्रताप को मातृभूमि के स्पर्श करने का सौभाग्य 1946 मेँ मिला, वह भारत वापस लौटे । सरदार पटेल की बहिन मणीबेन उनको लेने कलकत्ता हवाई अडडे गई । वे सांसद भी रहे । वे स्वतंत्र भारत मेँ जीवन पर्यँत मानवता का प्रचार करते रहेँ । राजनीतिक कारणोँ से भारतीय इतिहास ने उन्हेँ वह स्थान नहीँ दिया जिसके वह अधिकारी थे ।
- विश्वजीतसिँह
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