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डा श्याम गुप्त की गज़ल..शब्द और काव्य,,,,

Written By shyam gupta on शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011 | 4:34 pm

 ( हाल ही में ल वि वि के एक हिन्दी के प्रोफ़. साहब के सामने ’प्रेम काव्य’ की बात हो रही थी । वे बोले  कुछ समतामूलक काव्य लिखा जाना चाहिये, ये प्रेम-व्रेम क्या.....इस भाव पर देखिये एक गज़ल....)

इक शब्द बोलने का तो जिनको नहीं शऊर
वो क्या लिखेंगे आप ही कह दीजिये हुज़ूर |

ग्रन्थ कोटिभि लिख दिए,औ ज्ञान सागर होगये ,
ढाई -आखर   वो   न समझे, पर बड़े मगरूर  |

समतामूलक काव्य क्या,यदि 'प्रेम' ही समझे नहीं ,
बस कलम घिसने को कोई, इक  शौकिया गुरूर |

ढाई आखर प्रीति का जाना सो पंडित होगया ,
ज्ञान की महिमा यही है, शब्द का एसा शुरूर |

आप मानें या न जानें अकथ महिमा शब्द की,
खुश रहिये ख्वाबो-ख्याल में कवि आप हें मशहूर |

हो इश्क या रब, मैं या तू, इक शब्द ही तो है,
है ब्रह्म, अक्षर, अनश्वर,अल्लाह का ही नूर |

फितरत दिलों को तोड़ने की, तोड़ दीजिये,
श्याम, तो लफ़्ज़ों की मय  छानेंगे हाँ  जरूर ||
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1 टिप्पणियाँ:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

ग्रन्थ कोटिभि लिख दिए,औ ज्ञान सागर होगये ,
ढाई -आखर वो न समझे, पर बड़े मगरूर |
jisne dhaai akshr smjhe vahi gyani hai

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